31 अक्तूबर 2009

बहार और कगार-हिंदी कविता (bahar aur kagar-hindi kavita)

ज़िन्दगी के देखे दो ही रास्ते
एक बागों की बहार
दूसरा उजाड़ की कगार का.

चलती है टांगें
मकसद तय करता है मन
दुश्मन की शान में गुस्ताखी करना
या तारीफ के अल्फाज़ कहकर
दिल खुश करना यार का..

फिर भी समझ का फेर तो
होता है इंसान में अलग अलग
कहीं रौशनी देखकर अंगारों में
अपने पाँव जला देता है
कहीं प्यार के वहम में
अपनी अस्मत भी लुटा देता है
जिंदगी है उनकी ही साथी
जो आगे कदम बढ़ाने से पहले
अनुमान कर लेता है
समय और हालत की धार का..

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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20 अक्तूबर 2009

जल्दी जीतने की कोशिश-व्यंग्य कविता (jaldi jeetne ki koshish-hindi vyangya kavita)

भीड़ में अपनी पहचान ढूंढते हुए
क्यों अपना वक्त बर्बाद करते हो.
भीड़ जुटाने वाले सौदागरों के लिए
हर शख्स एक बेजान शय है
अपनी हालातों पर तुम
क्यों लंबी गहरी साँसें भरते हो.
सौदागरों के इशारे पर ही
अपनी अदाएं दिखाओ
चंद सिक्के मिल सकते हैं खैरात में
पर इज्जत की चाहत तुम क्यों करते हो.
अपने हाथ से अपनी कामयाबी पर
जश्न मनाने में देर लग सकती है,
जल्दी जीतने की कोशिश में
सौदागरों के हाथ में अपनी
आजादी क्यों गिरवी रखते हो.

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17 अक्तूबर 2009

अपनी असलियत मत बदलना-हिंदी व्यंग्य कविता (apni asliyat mat badlana-hindi vyangya kavita)

सारे जहां की प्यास मिटा सको
तुम वह समंदर बनना.
भेजे जो आकाश में पानी भरकर मेघ
जहां लोग पानी को तरसे
वहीँ समन्दर से लाया अमृत बरसे
अपने किये का नाम कभी न करना.

गंगा पवित्र नदी कहलाती है,
पर अपने किनारे की ही प्यास बुझाती है,
देवी की तरह पुजती पर
लाशों से मैली भी की जाती है,
जब तक समन्दर तक पहुँचती
तब तक समेटती है दूसरों के पाप,
जहां है इज्जत का वरदान
वहां साथ लगा है बदनामी का शाप,
तुम बने रहना हमेशा खारे
किनारे आये प्यासों की प्यास बुझाने के लिए
दिखावे के पुण्य की लालच में
अपनी असलियत मत बदलना.

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5 अक्तूबर 2009

उनके लिए एक शय-हिंदी कविता (ek shay-hindi kavita)

वह शर्मिन्दा नहीं
चाहे तुम्हें वह रास्ता बताया
जिस पर खुद कभी चले नहीं.
तुम्हारे पांवों के छाले बतलाते हैं
कि उनके कहने पर ही कदम-दर-कदम
अपने बढ़ाते रहे उस मंजिल की तरफ
जो जमीन पर नहीं बसी थी
ख्यालों में थी उनके कहीं.
उन्हें वास्ता था
तुम्हारी लाचारी से
जिस पर हमदर्दी दिखाकर
वह अपने लिए इज्जत जुटा रहे थे
उनकी अदाओं पर
लोग वाह वाह लुटा रहे थे
तुम उनके लिए एक शय से ज्यादा कभी थे ही नहीं
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फुटबाल और हवा-हिंदी व्यंग्य लघुकथा (khel aur hava-hindu laghu katha)

उसने एक फुटबाल ली और उस पर लिख दिया धर्म। वह उस फुटबाल के साथ एक डंडा लेकर उस मैदान में पहुंच गया जहां गोल पोस्ट बना हुआ था। तमाम लोग वहां तफरी करने आते थे इसलिये वह पहले जोर से चिल्लाया और बोला-‘है कोई जो सामने आकर मुझे गोल करने से रोक सके।’
उसने अपनी आंखों पर चश्मा लगा लिया था। उसका डीलडौल और हाथ में डंडा देखकर लोग डर गये और फिर वह शुरु हो गया उसके गोल करने का सिलसिला। एक के बाद एक गोल कर वह चिल्लाता रहा-है कोई जो मेरा सामना कर सके। देखों धर्म को मैं कैसे लात मारकर गोल कर रहा हूं।’
लोग देखते और चुप रहते। कुछ बच्चे शोर बचाते तो कुछ बड़े कराहते हुए आपस में एक दूसरे का सांत्वना देते कि कोई तो माई का लाल आयेगा जो उसका गोल रोकेगा।’
उसी समय एक ज्ञानी वहां से निकला। उसने यह दृश्य देखा और फिर उसके पास जाकर बोला-‘क्या बात है? सामने कोई गोल पर तो है नहीं जो गोल किये जा रहे हो।’
वह बोला-‘तुम सामने आओ। मेरा गोल रोककर दिखाओ। यह फुटबाल मैंने एक कबाड़ी से खरीदी है और मैं चाहता हूं कि कोई मेरे से गोल गोल खेले।

ज्ञानी ने कहा-‘ यह होता ही है। अगर फुटबाल है तो खेलने का मन होगा। डंडा है तो उसे भी किसी को मारने का मन आयेगा। ऐसे में तुम्हारे साथ कोई नहीं खेलने आयेगा।’
उसने कहा-‘तुम ही खेल लो। दम है तो आ जाओ सामने।’
ज्ञानी ने उससे फुटबाल हाथ में ली और उसकी हवा भरने के मूंह पर जाकर उसका ढक्कन खोल दिया। वह पूरी हवा निकल गयी।
वह चिल्लाने लगा और बोला-‘अरे, डरपोक हवा निकाल दी। अभी डंडा मारता हूं।’
ज्ञानी ने कहा-‘फंस जाओगे। यहां बहुत सारे लोग हैं। फुटबाल पर तुमने धर्म लिखकर लोगों की भावनाओं को संशकित कर दिया था पर अब वह यहीं आयेंगे। देखो वह आ रहे हैं।’
उसने देखा कि लोग उसकी तरफ आ रहे हैं। ज्ञानी ने कहा-‘तुम अब घर जाओ। यह तुम नहीं फुटबाल थी जो तुमसे खेल रही थी। फुटबाल में हवा भरी थी जो उसके साथ तुम्हें भी उड़ा रही थी। वैसे तुम्हारी देह भी हवा से चल रही है पर यह हवा तुम्हारे दिमाग को भी चला रही थी। अब न यह फुटबाल चलेगी न डंडा।’
वह ज्ञानी ऐसा कहकर चल दिये तो तफरी करने आये एक सज्जन ने पूछा-‘पर आपने सब क्यों और कैसे किया?’
ज्ञानी ने कहा-‘मैंने कुछ नहीं किया। यह तो हवा ने किया है। उसे फुटबाल में भरी हवा ने बौखला दिया था। वह निकल गयी तो उसके लिये अपना यह नाटक जारी रखना कठिन था। मुझे करना ही क्या था? उसके कहने पर उसके साथ फुटबाल खेलने से अच्छा है कि उसकी हवा निकाल कर मामला ठंडा कर दो। फुटबाल खेलता तो वह गोल रोकने को लेकर विवाद करता। मेरे गोल पर आपत्तियां जताता। उसको छोड़ कर जाता तो वह यहां भीड़ के लोगों को बेकार में डराता। इससे अच्छा है कि धर्म नाम लिखकर झगड़ा बढ़ाने की उसकी योजना को फुटबाल में से हवा निकाल कर बेकार कर दिया जाये।’
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1 अक्तूबर 2009

दो तरह के लोग-हिंदी कविता (two type of man-hindi poem

धरती पर अपने कदम दर कदम
चलते हुए जब
नजर करता हूं नीचे की तरफ
तब जहां तक देखता हूं
वहीं तक ख्याल चलते हैं
दुनियां बहुत छोटी हो जाती है।

आंखें उठाकर देखता हूं जब आकाश में
चारों तरफ घुमते हुए
उसके अनंत स्वरूप के दृश्य से
इस दुनियां के बृहद होने की
अनुभूति स्वतः होने लग जाती है।
ख्यालों को लग जाते हैं पंख
सोचता हूं मेरे पांव भले ही
नरक में चलते हों
पर कहीं तो स्वर्ग होगा
तब अधरों पर मुस्कान खेल जाती है।

दृष्टि से बनता जैसा दृष्टिकोण
वैसा ही दृश्य सामने आता है
मगर दृष्टिकोण से जब बनती है दृष्टि
तब हृदय को छू लें
ऐसे मनोरम दृश्य सामने आते हैं
शायद यही वजह है
इस संसार में रहते दो प्रकार के लोग
एक जो बनाते हैं अपनी दुनियां खुद
दूसरे वह जिनको दूसरी की
बनी बनायी लकीर चलाती है।
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