22 जुलाई 2011

तृप्त मन का आनंद-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (trupt man ka anand-hindi vyangya chinttan)

       वर्षा ऋतु में मनुष्य मन को एक स्वाभाविक सुखद अनुभूति होती है। इस पर सावन का महीना हो तो कहना ही क्या? अनेक ऋषियों और कवियों ने सावन के महीने के सौंदर्य का वर्णन किया है। अनेक कवियों ने काल्पनिक प्रेयसी को लेकर अनेक रचनायें भी की जिनको गीत और संगीत से इस तरह सजाया गया कि उनको आज भी गुनगुनाया जाता है । इनमें कुछ प्रेयसियां तो अपने श्रीमुख से सावन के महीने में पियत्तम के विरह में ऐसी ऐसी कवितायें कहती हुई दिखाई देती हैं कि श्रृ्रंगार और करुण रस के अनुपम उदाहरण बन जाती हैं।
     उस दिन रविवार का दिन था हम सुबह चाय पीकर घर से बाहर निकले। साइकिल चलाते हुए कुछ दूर पहुंचे तो पास से ही एक सज्जन स्कूटर चलाते हुए निकले और हमसे बोले ‘‘आज पिकनिक चलोगे।’ यहां से आठ किलोमीटर दूर एक तालाब के किनारे हमने पिकनिक का आयोजन किया है। वैसे तो हमने अन्य लोगां से प्रति सदस्य डेढ़ सौ रुपये लिये हैं। तुम्हारे साथ रियायत कर देते हैं। एक सौ चालीस रुपये दे देना पर तुम्हें आना अपने वाहन से ही पड़गा।
            हमने कहा-‘‘न! वैसे हम इस साइकिल पर पिकनिक मनाने ही निकले हैं। यहां से तीन किलोमीटर दूर एक एक मंदिर और पार्क है वहां जाकर पिकनिक मनायेंगे। ’’
         वह सज्जन रुक गये। हमें भी साइकिल से उतरना पड़ा। यह शिष्टाचार दिखाना जरूरी था भले ही मन अपने निर्धारित लक्ष्य पर विलंब से पहुंचने की संभावना से कसमसा रहा था। वह हमार चेहरे को देखने के बाद साइकल पर टंगे झोले की तरफ ताकते हुए बोले-‘इस झोले में खाने का सामान रखा है?’’
         हमने झोले की तरफ हाथ बढ़ाकर उसे साइकिल से निकालकर हाथ में पकड़ लिया और कहा-‘‘ नहीं, इसमें पानी पीने वाली बोतल और शतरंज खेलने का सामान है।’’
      वह सज्जन बोले-‘केवल पानी पीकर पिकनिक मनाओगे? यह तो मजाक लगता है! यह शतरंज किससे खेलोगे। यहां तो तुम अकेल दिख रहे हो।’
     हमने कहा-‘वहां हमारा एक मित्र जिसका नाम फालतु नंदन आने वाला है। उसी ने कहा था कि शतरंज लेते आना।’’
      वह सज्जन हैरान हो गये और कहने लगे कि‘-‘‘वह तुम्हारा दोस्त वहां कैसे आयेगा उसके पास तो स्कूटर या कार होगी?’
     हमने कहा-‘स्कूटर तक तो ठीक, कार वाले भला हमें क्यों घास डालने लगे। वह बैलगाड़ी से आयेगा।’
वह सज्जन चौंके-‘‘ बैलगाड़ी से पिकनिक मनाने आयेगा?’’
      हमने कहा-‘नहीं, वह अपने किसी बीमार रिश्तेदार का देखने पास के गांव गया था। बरसात से वहां का रास्ता खराब होने की वजह से वह बैलगाड़ी से गया है। उसने मोबाइल पर कहा था कि वह सुबह दस बजे पार्क में पहुंच जायेगा और हमसे शतरंज खेलने के बाद ही घर जायेगा। ’’
     वह सज्जन बोले-‘मगर यह तो रुटीन घूमना फिरना हुआ! इसमें खानापीना कहां है जो पिकनिक में होता है?’’
     हमने कहा-‘‘खाने का तो यह है कि पार्क के बाहर चने वाला बैठता है वह खा लेंगे और पीने के लिये वह कुछ ले आयेगा।’’
     वह हमारी आंखों में आंखें डालते हुए पूछा-‘‘मतलब शराब लायेगा! यह तो वास्तव में जोरदार पिकनिक होगी।’
    हमने कहा-‘‘नहीं, वह नीबू की शिकंजी पीने का सामान अपने साथ लेकर निकलता है। गांव से ताजा नीबू लायेगा तो हम वहां दो तीन बार शिकंजी पी लेंगे। हो सकता है वह गांव से कुछ खाने का दूसरा सामान भी लाये।’ अलबत्ता हम तो चने खाकर कम चलायेंगे।’’
   वह सज्जन बोले-‘‘अब आपको क्या समझायें? पिकनिक मनाने का भी एक तरीका होता है। आदमी घर से खाने पीने का सामान लेकर किसी पिकनिक स्पॉट पर जाये। वहां जाकर एन्जॉय (आनंद) करे। यह कैसी पिकनिक है, जिसमें खाने पीने के लिये केवल चने और नीबू की शिकंजी और एन्जॉयमेंट (आनंद)के नाम पर शतरंज। पिकनिक में चार आदमी मिलकर खाना खायें, तालाब में नहायें गीत संगीत सुने और ताश वगैरह खेलें तब होता है एन्जॉयमेंट!’’
       हमने कहा-‘‘मगर साहब, हम तो वहां पिकनिक जैसा ही एन्जॉयमेंट करते हैं।’’
उन सज्जन से अपना सिर धुन लिया और चले गये। अगले दिन फिर शाम को मिले। हमने पिकनिक के बारे में पूछा तो बोले-‘यार, थकवाट हो गयी। लोग पिकनिक तो मनाने आते हैं पर काम बिल्कुल नहीं करते। पैसा देकर ऐसे पेश आते हैं जैसे कि सारा जिम्मा हमारा ही है। सभी के लिये खाना बनवाओ। बर्तन एकत्रित करो। पानी का प्रबंध करो।’ अपना एन्जॉयमेंट तो गया तेल लेने दूसरे भी खुश नहीं हो पाते। व्यवस्था को लेकर मीनमेख निकालने से बाज नहीं आते।’’
     हमने कहा-‘‘पर कल हमने खूब एन्जॉय मेंट किया। वहां एक नहीं चार शतरंज के खिलाड़ी मिल गये। बड़ा मजा आया।’’
    वैसे हमने अनेक बार अनेक समूहों में पिकनिक की है पर लगता है कि व्यर्थ ही समय गंवाया। आनंद या एन्जॉयमेंट करने के हजार तरीके हैं आजमा लीजिये पर अनुभूति के लिये संवदेनशीलता भी होना जरूरी है। सतं रविदास ने कहा था कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। यह कोई साधारण बात नहीं है। आदमी अपनी नियमित दिनचर्या से उकता जाता है इसलिये वह किसी नये स्थान पर जाना चाहता है। ऐसे में नदिया तालाब और उद्यान उसके लिये मनोरंजन का स्थान बन जाते हैं। खासतौर से वर्षा ऋतु में नदियों में पानी का बहाव बढ़ता है तो सूखे तालाब भी लुभावने हो जाते हैं। ऐसे में दूर के ढोल सुहावने की भावना के वशीभूत जलस्तोत्रों की तरफ आदमी भागता है यह जाने बगैर कि वर्षा ऋतु में पानी खतरनाक रूप भी दिखाता है।
         मुख्य बात यह है कि हम अपने कामों में इस तरह लिप्त हो जाते हैं कहीं ध्यान जाता नहीं है। हम जहां काम करते हैं और जिस मार्ग पर प्रतिदिन चलते हैं वहीं अगर मजेदार दृश्यों को देखें तो शायद मनोरंजन पूरा हो जाये। ऐसा हम करते नहीं है बल्कि अपनी नियमित दिनचर्या तथा परिवहन के मार्ग को सामान्य मानकर उनमें उदासीन भाव से संलिप्त होते हैं।
         एक दिन एक सज्जन हमारे घर आये और बोले-‘यार, तुम कहीं घूमने चलो। कार्यक्रम बनाते है।’’
उस समय बरसात का सुहाना मौसम था। हमने उसे घर के बाहर पोर्च में आकर बाहर का दृश्य देखने को कहा। वह बोला -‘‘यहां क्या है?’’
        हमने उससे कहा-‘देखो हमारे घर के बाहर ही पेड़ लगा है। सामने भी फूलों की डालियां झूल रही हैं। । आगे देखो नीम का पेड़ खडा है। यहां पोर्च में खड़े होकर ही इतनी हरियाली दिख रही है। शीतल हवा का स्पर्श तन मन को आनंदित किये दे रहा है। अब बताओ ऐसा ही इससे अधिक शुद्ध हवा कहां मिलेगी। फिर अगर इससे मन विरक्त हो जायेगा तो शाम को पार्क चले जायेंगे। तब वहां भी अच्छा लगेगा। हमारी दिक्कत यह है कि बाहर हमें ऐसा देखने को मिलेगा या नहीं इसमें संशय लगता है। फिर इसी दिनचर्या में मन तृप्त हो जाता है तब बाहर कहां आनंद ढूंढने चलें। केवल शरीर को कष्ट देने में ही आनंद मिल सकता है तो वह भी हम रोज कर ही रहे हैं।’’
       हम पिछले साल उज्जैन गये थे। यात्रा ठीकठाक रही पर वहां दिन की गर्मी ने जमकर तपा दिया शाम को बरसात हुई और तब हम बस से घर वापस लौटने वाले थे। सारे दिन पसीने से नहाये। अपने शहर वापस लौटने के बाद एक रविवार हम जल्दी उठकर योगाभ्यास, स्नान और नाश्ता करने के बाद अपने शहर के मंदिरों में गये। एक नहीं पांच छह मंदिरों में गये तो ऐसा लगा कि किसी धार्मिक पर्यटन केंद्र में हों। एक शिव मंदिर पर हमारी एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई। जब पता लगा कि वह वहां रोज आता है तो हमने पूछा कि‘यार, बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के हो कहीं तीर्थ वगैरह पर भी जाते हो।’
       वह हंसकर बोला-‘यार, मेरे लिये तो यह मंदिर ही सबसे बड़ा तीर्थ है। यहीं आकर रोज मन तृप्त हो जाता है।’
      अनेक बार ऐसा लगता है कि जिन लोगों को अपने शहर में ही धूमने की आदत नहीं है या वह जानते ही नहीं कि उनका शहर भी अनेक तरह के रोमांचक केंद्र धारण किये हुए वही दूसरे शहरों में घूमने को लालायित रहते हैं। यह दूर के ढोल सुहावने वाली बात लगती है। मन भटकाता है। अगर वह चंगा नहीं है तो गंगा भी तृप्त नहीं कर सकती और मन चंगा है तो अपने घर के पानी से नहाने पर भी वह शीतलता मिलती है जो पवित्र होने के साथ ही दिन भरी के संघर्ष के लिये प्रेरणादायक भी होती है। अपने अपने अनुभव है और अपनी अपनी बात है। हमें तो हर मौसम में लिखने में मजा आता है पर क्योंकि उससे मन शीतल हो जाता है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

14 जुलाई 2011

गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिन्दी लेख-गुरु अगर द्रोणाचार्य जैसा न मिले पर एकलव्य जैसा शिष्य तो बना जा सकता है (guru purnima par vishesh hindi lekh-dronacharya and eklavya)

        गुरू पूर्णिमा का दिन भारत में धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में गुरु की सेवा का महत्व प्रतिपादित किया है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ज्ञान का व्यवसायिक रूप से प्रवचन करने वाले अनेक गुरु इस संदेश का महत्व अपने अपने ढंग से बयान करते हुए अपनी छवि गुरु जैसी बना लेते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुरू के स्वरूप की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है इसलिये इसका उपयोग चाहे जैसे किया जा सकता है पर जो लोग श्रीमद्भागवत के अक्षरक्षः पालन करने के समर्थक हैं वह गुरू के अधिक व्यापक स्वरूप की बजाय उसके सूक्ष्म अर्थ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। उनका स्पष्टतः मानना है कि असली गुरु वही है जो अपने शिष्य को तत्वज्ञान से अवगत कराने के साथ ही उसमें धारित या स्थापित करने का सामर्थ्य रखता हो।
          श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान केवल उसके अध्ययन से सभी को नहीं हो सकता और उनको इसके लिये किसी न किसी गुरु की आवश्यकता होगी यह बात श्रीकृष्ण अच्छी तरह से जानते थे। देश में जो आज की शैक्षणिक स्थिति है उससे अधिक बदतर तो महाभारत काल में थी। सभी लोग अक्षर ज्ञान से अवगत नहीं थे और उनको धार्मिक और अध्यात्मिक ज्ञान में वर्णित सामग्री के लिये भाषा ज्ञान रखने वाले लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था तब दैहिक गुरु की आवश्यकता बताई गयी। इसी कारण से श्रीमद्भागवत गीता में गुरु के स्वरूप के महत्व बताया गया। महभारत युद्ध में श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देते भगवान श्रीकृष्ण के उस समय श्री अर्जुन के सखा न होकर गुरु बन गये थे।
       श्रीमद्भागवत गीता एक अनमोल ग्रंथ है। ऐसा कोई भी पेशेवर या गैर पेशेवर अध्यात्मवेता नहीं है जो उसके स्वर्णिम भंडार रूपी तत्वज्ञान से अपना मोह दूर रख सके। यह अलग बात है कि पेशेवर संत गुरु का अर्थ अत्ंयत व्यापक कर जाते हैं। वह उसमें माता पिता, दादा दादी और नाना नानी भी जोड़ देते हैं ताकि वह अपने शिष्यों के साथ उनके परिवार में भी पैठ बना सकें। जबकि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों से ऐसा आभास नहीं होता। वहां गुरु से आशय केवल तत्वज्ञान देने वाले परिवार से बाहर के गुरु से ही है। उसकी सेवा की बात करना स्वाभाविक भी हैै। वह भी उस समय जब उससे शिक्षा प्राप्त की जा रही हो। उस समय गुरुकुलोंु में शिक्षा होती थी और सेवा एक आवश्यकता थी। न कि गुरुजी के दिये ज्ञान को धारण किये बिना हर वर्ष उसके यहां मत्था टेककर अपना जीवन धन्य समझना।
         कुछ पेशेवर संत माता पिता की सेवा का उपदेश देकर भीड़ की वाहवाही लूटते हैं क्योंकि उनके भक्तों में अनेक माता पिता भी होते हैं। ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि क्या श्रीमद्भागवत गीता में माता पिता के सेवा के लिये कोई स्पष्टतः उल्लेख नहीं हैं तो उन्हें बता दें कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो गृहस्थ जीवन का त्याग करने की बजाय उसे निभाने की बात कही है। हमारे माता पिता हमारी गृहस्थी का ही भाग होते हैं न कि उनसे अलग हमारा और हमसे अलग उनका कोई अस्तित्व होता है। हम उनकी गृहस्थी का विस्तार हैं तो वह हमारी गृहस्थी के शीर्ष होते हैं। जो व्यक्ति गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह अपनी गृहस्थी में शामिल हर सदस्य के प्रति अपना कर्तव्य निभाता है। इस दैहिक संसार में कोई भी आदमी अपने गृहस्थ कर्म से विमुख नहीं हो सकता इसलिये गुरु के स्वरूप का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है।
          माता पिता तो अपनी संतान के संसार का ही ज्ञान देते हैं जबकि गुरु इस प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने वाला ज्ञान देकर अपने शिष्य को इस जीवन को जीने का तरीका सिखाता है जिसके आगे सांसरिक ज्ञान तुच्छ साबित होता है। इसके विपरीत हम देख रहे है कि धर्म से जुड़े पेशेवर और गैरपेशेवर प्रवचन कर्ता अपने श्रोताओं और शिष्यों को सांसरिकता का पाठ ही अवश्य पढ़ाते हैं। उनका लक्ष्य समाज में चेतना लाने की बजाय उसे बौद्धिक विलासी बनाकर उसका दोहन करना होता है। स्थिति यह है कि इनमें से कई शिखर पर पहुंच कर अपने शिष्य और श्रोता समुदाय की संख्या का प्रभाव दिखाने की कोशिश सार्वजनिक रूप से करते हैं। ऐसे लोग श्रीमद्भागवत गीता जिसमें जिसमें निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया का पाठ पढ़ाया है उसका वाचन कर लोगों में विषयों के प्रति आसक्ति को तीव्रतर करने के लिये करते हैं।
        इसका छोटा उदाहरण यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध से विरक्त होकर जब हथियार डाले और श्रीकृष्ण को भविष्य के दुष्परिणामों के बारे में बताया तो उसमें उसने यह भी कहा था कि जब दोनों तरफ के योद्धा अपने परिवार के समस्य पुरुष सदस्यों के साथ मारे जायेंगे तो फिर उनका श्राद्ध और तर्पण कौन करेगा? उन्होंने अन्य आसन्न संकटों की भी चर्चा की। भगवान श्री कृष्ण ने दूसरे अध्याय में उसके इस तरह के सारे संकटों को वहम बताया। वहां भगवान श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि यह सारे ढकोसले हैं। श्रीमद्भागवत गीता में किसी भी कर्मकांड का समर्थन नहीं किया गया। इसी श्रीगीता के आधार पर बोलने वाले गुरु अपने शिष्यों को श्राद्ध तथा पितृपक्ष का महत्व बताते हुए उसे निभाने की बात करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र की यह विशेषता है कि दोनेां ही गुरु महिमा का बखान करते हैं पर एक बार वह अपने कर्मक्षेत्र में उतरे तो पलट कर अपने गुरु के पास नहीं गये। स्पष्टतः उनका आशय केवल शिक्षा के दौरान ही गुरु की सेवा से रहा है। उनके गुरुओं ने भी कभी उनका संपूर्ण जीवन तक दोहन नहीं किया। तत्वज्ञान देने वाला गुरु पूर्ण रूप से शिष्य को शिक्षित कर फिर उससे भी विरक्त हो जाता है। न वह शिष्य में मोह रखता है न वह उससे ऐसी अपेक्षा करता है। यही त्याग गुरु की सबसे बड़ी शक्ति है और आज हम अपने अध्यात्मिक ज्ञान के विश्व में सबसे अधिक संपन्न देखते हैं तो वह केवल इन्हीं गुरुओं की तपस्या का परिणाम है।
      लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवकश्यता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। जीवन में गुरु होना चाहिए पर न हो तो फिर श्रीमद्भागवत गीता को ही गुरू मानकर शिष्य भाव से उसका अध्ययन करना चाहिये जो अब सभी भाषाओं में उपलबध है। भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन किया जाये तो ज्ञान चक्षु स्वतः खुल जायेंगे। फिर कहीं सत्संग और चर्चा करें तो अपने ज्ञान को प्रमाणिक भी बना सकते हैं। मुख्य बात संकल्प की है। हमारा स्वय का संसार हमारे सामने अपने ही संकल्प से वैसे ही स्थित होता है जैसे परमात्मा के संकल्प से स्थित है। अगर द्रोणाचार्य जैसे गुरु नहीं मिलते तो एकलव्य जैसा शिष्य तो बना ही जा सकता है।
इस अवसर पर अपने ब्लाग लेख्कों और पाठकों को बधाई।

 
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

9 जुलाई 2011

त्रावनकोर (त्रावनकोर) के स्वामी पद्मनाभ मंदिर का खजाना और देश का आम जनमानस (travancor ke swami padmanabh mandir ka khazana aur bhartiya janamanas-hindi lekh

           केरल ट्रावनकोर में स्वामी पद्मनाभ मंदिर में खजाना मिलने की घटना इस विश्व का आठवां आश्चर्य मानना चाहिए। आमतौर से भारत में गढ़े खजाने होने की बात अक्सर कही जाती है। अनेक सिद्ध तो इसलिये ही माने जाते हैं कि वह गढ़े खजाने का पता बताते हैं। यह अलग बात है कि वह अपने चेलों से पैसा ऐंठकर गायब हो जाते हैं। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि धर्म और भगवान अंध श्रद्धा रखने वालों को गढ़े खजाने में बहुत दिलचस्पी होती है और ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है।
            ट्रावणकोर का खजाना पांच लाख करोड़ से ऊपर पहुंच जायेगा ऐसा कुछ आशावादी कह रहे हैं तो कुछ विचारक लोग इस बात से चिंतित हैं कि कहीं यह खजाना भी लुट न जाये। प्रचार माध्यमों में भले ही इस खबर की चर्चा हो रही है पर आम जनमानस की उदासीनता भी कम आश्चर्य का विषय नहीं है। मिल गया तो और लुट गया तो इसमें उनको अपना कोई हित या अहित नहीं दिखता। इससे एक बात निश्चित लग रही है कि देश के समाज, अर्थ और धर्म के शिखर पर बैठे लोग की तरह उनमें दिलचस्पी रखने का आदी बौद्धिक वर्ग के लोग भी आमजन के चिंताओं से दूर हो गया है। उसे पता ही नहीं कि जनमानस के मन में क्या चल रहा है? यह देश के लिये खतरनाक स्थिति है पर ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि बाजार और प्रचार से प्रयोजित बौद्धिक समूह समाज से कट चुका है।
            दरअसल हमारे देश में आधुनिक लोकतंत्र ने जहां आम आदमी के लिये सत्ता में भागीदारी का दरवाजा खोला है वहीं ऊंचा पद पाने की उसकी लालसा को बढ़ाया भी है। जिन लोगों को यह मालुम है कि उच्च पद उनके भाग्य नहीं है वह उच्च पदस्थ लोगों के अनुयायी बनकर उनके प्रचारक बन जाते हैं। यही प्रचारक अपनी बात समाज की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने का दावा करते हैं। शिखर पुरुषों का आपस में एक तयशुदा युद्ध चलता है और आम आदमी उसे मूकभाव से देखता है। फिर इधर धनवान, पदवान, कर्मवान, धर्मवान तथा अधर्मवान लोगों का एक समूह है जो पूरे विश्व पर शासन करने लगा है। उसने इस तरह का वातावरण बनाया है कि हर व्यक्ति और क्रिया का व्यवसायीकारण हो गया है। लिखने, पढ़ने, बोलने और देखने की क्रियाओं में स्वतंत्रता नहीं रही। न अभिव्यक्ति में मौलिकता है। विचाराधाराओं, धर्मो, जातियों और भाषाओं के क्षेत्र में सक्रिय लोग प्रायोजित हैं। उनकी अभिव्यक्ति स्वतंत्र नहीं प्रायोजित है। उनकी अभिव्यक्ति सतही है। बाज़ार जैसी प्रेरणा निर्मित करता है प्रचार में वैसी ही अभिव्यक्ति दिखाई देती है।
           ऐसे में नये आदमी और नये विचार को वैसे भी कोई स्थान नहीं मिलता फिर प्रायोजन की प्रवृत्ति ने आमजान को भी इतना संकीर्ण मानसिकता का बना दिया है कि उसे गूढ़ बात समझ में नहीं आती। भारत में अभी तक कहा जाता था कि आर्थिक संकट है पर किसी ने यह नहीं कहा कि बौद्धिकता का संकट है। कुछ दिन पहले स्विस बैंक में कथित रूप से भारतीयों के चार लाख करोड़ जमा होने की बात सामने रखकर कुछ लोग कह रहे थे कि यह पैसा अगर देश में आ जाये तो देश की तस्वीर बदल जाये। अगर त्रावणकोर के खजाने की बात कही जाये तो वह भी कम नहीं है तब क्या कोई उसके सही उपयोग की बात कोई नहीं कर रहा है। ढोल जब दूर हैं तो सुहावने बताये और पास आया तो कहने लगे कि हमें बजाना नहीं आता इसलिये इसे सजाकर रखना है। फिर एक सवाल यह भी है कि इसका उपयोग किया जाये तो क्या वाकई इस देश की स्थिति सुधर जायेगी। कतई नहीं क्योंकि हमारे देश की समस्या धन की कमी नहीं बल्कि मन की कमी है। मन यानि आत्मविश्वास की कमी ही देश का असली संकट है और यह विचारणीय विषय है। इस विषय पर वह लेख एक साथ प्रस्तुत हैं जो इस लेखक ने इंटरनेट पर लिखे और पाठकीय दृष्टि से फ्लाप रहे।
सोने के खजाने से बड़ा है आम आदमी का पसीना-हिन्दी लेख (sone ke khazane se bada hai aam admi ka pasina-hindi lekh)      
  त्रावणकोर के स्वामी पद्मनाभ मंदिर में सोने का खजाना मिलने को अनेक प्रकार की बहस चल रही है।  एक लेखक, एक योग साधक और एक विष्णु भक्त होने के कारण इस खजाने में इस लेखक दिलचस्पी बस इतनी ही है कि संसार इस खजाने के बारे में क्या सोच रहा है? क्या देख रहा है? सबसे बड़ा
सवाल इस खजाने का क्या होगा?        
          कुछ लोगों को यह लग रहा है कि इस खजाने का प्रचार अधिक नहीं होना चाहिए था
क्योंकि अब इसके लुट जाने का डर है।  इतिहासकार अपने अपने ढंग सेइतिहास का व्याख्या करते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञानियों का अपना एक अलग नजरिया होता है। दोनों एक नाव पर सवारी नहीं करते भले ही एक घर में रहते हों। इस समय लोग स्विस बैंकों में कथित रूप से भारतीयों के जमा चार लाख
करोड़ के काले धन की बात भूल रहे हैं। इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह रकम अगर भारत आ जाये तो देश के हालत सुधर जायें।  अब त्रावनकोर के पद्मनाभ मंदिर के खजाने की राशि पांच लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। बहस अब स्विस बैंक से हटकर पद्मनाभ मंदिर में  पहुंच
गयी है।
    हमारी दिलचस्पी खजाने के संग्रह की प्रक्रिया में थी कि त्रावणकोर के राजाओं ने इतना सोना जुटाया कैसे? इससे पहले इतिहासकारों से यह भी पूछना चाहेंगे कि उनके इस कथन की अब क्या स्थिति है जिसमें वह कहते हैं कि भारत की स्वतंत्रता के समय देश के दो रियासतें सबसे अमीर थी एक हैदराबाद दूसरा
ग्वालियर।  कहा जाता है कि उस समय हैदराबाद के निजाम तथा ग्वालियर के सिंधियावंश के पास सबसे अधिक  संपत्ति थी। त्रावणकोर के राजवंश का नाम नहीं आता पर अब लगता है कि इसकी संभावना अधिक है कि वह सबसे अमीर रहा होगा। मतलब यह कि इतिहास कभी झूठ भी बोल सकता है
इसकी संभावना सामने आ रही है। बहरहाल त्रावणकोर के राजवंश विदेशी व्यापार करता था।  बताया जाता है कि इंग्लैंड के राजाओं के महल तक उनका सामान जाता था। हम सब जानते हैं कि केरल प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य रहा है।  फिर त्रावणकोर समुद्र के किनारे बसा है।  इसलियेविश्व में जल और नभ परिवहन के विकास के चलते उसे सबसे पहले लाभ होना ही था।  पूरे देश के लिये विदेशी सामान वहां के बंदरगाह पर आता होगा तो  यहां से जाता भी होगा।  पहले भारत का विश्व सेसंपर्क थल मार्ग से था। यहां के व्यापारी सामान लेकर मध्य एशिया के मार्ग से जाते थे। तमाम तरह के राजनीतिक और धार्मिक परिवर्तनों के चलते यह मार्ग दुरुह होता गया होगा तो जल मार्ग के साधनों के विकास का उपयोग तो बढ़ना ही था।  भारत में उत्तर और पश्चिम से मध्य एशियाई देशों से हमले हुएपर जल परिवहन के विकास के साथ ही  पश्चिमी देशों से भी लोग आये।पहले पुर्तगाली फिर फ्रांसिसी और फिर अंग्रेज।  ऐसे में भारत के दक्षिणी भाग में भी उथल पुथल हुई।  संभवत अपने काल के शक्तिशाली और धनी राज्य होने के कारण त्रावनकोर के तत्कालीन राजाओं को विदेशों से संपर्क बढ़ा ही होगा।  खजाने के इतिहास की जो जानकारी आरही है उसमें विदेशों से सोना उपहार में मिलने की भी चर्चा है। 
यह उपहार फोकट में नहीं मिले होंगे।  यकीनन विदेशियों को अनेकप्रकार का लाभ हुआ होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मार्ग से भारत में आना सुविधाजनक रहा होगा।  विदेशियों ने सोना दिया तो उनको क्या मिला
होगा? यकीनन भारत की प्रकृतिक संपदा मिली होगी जिसे हम कभी सोने जैसा नहीं
मानते। बताया गया है कि त्रावणकोर का राजवंश चाय, कॉफी और काली मिर्च के व्यापार से जुड़ा रहा है।  मतलब यह कि चाय कॉफी और काली मिर्च हमारे लिये सोना नहीं है पर विदेशियों से उसे सोने के बदले लिया। सोना भारतीयों की कमजोरी रहा है तो भारत की प्राकृतिक और मानव संपदाविदेशियों के लिये बहुत लाभकारी रही है।  केवल त्रावणकोर का राजवंश ही नहीं भारत के अनेक बड़े व्यवसायी उस समय सोना लाते  और भारत की कृषि और हस्तकरघा से जुड़ी सामग्री बाहर ले जाते  थे।  सोने की खदानों में मजदूर काम करता है तो प्रकृतिक संपदा का दोहन भी मजदूर ही करता है। मतलब पसीना ही सोने का सृजन करता है।   
          अपने लेखों में शायद यह पचासवीं बार यह बात दोहरा रहे हैं कि विश्व के भूविशेषज्ञ भारत पर प्रकृति की बहुत कृपा मानते हैं।  यहां भारतका अर्थ व्यापक है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान नेपाल, श्रीलंका,बंग्लादेश और भूटान भी शामिल है।  इस पूरे क्षेत्र को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता रहा है पर पाकिस्तान से मित्रता की मजबूरी के चलते इसे हम लोग आजकल दक्षिण एशिया कहते हैं।        
          कहा जाता है कि कुछ भारतीय राज्य तो ऐसे भी हुए हैं जिनका तिब्बत तक राज्य
फैला हुआ था।  दरअसल उस समय के राजाओं में आत्मविश्वास था और इसका कारण था अपने गुरुओं से मिला  अध्यात्मिक ज्ञान! वह युद्ध और शांति में अपनी प्रजा का हित ही सोचते थे।  अक्सर
अनेक लोग कहते हैं कि केवल अध्यात्मिक ज्ञान में लिप्तता की वजह से यह देशविदेशी आक्राताओं का शिकार बना। यह उनका भ्रम है। दरअसल अध्यात्मिक शिक्षा से अधिक आर्थिक लोभ की वजह से हमें सदैव संकटों का सामना करना पड़ा।  समय के साथ अध्यात्म के नाम पर धार्मिक पांखड और उसकी आड़ में आमजन की भावनाओं से खिलवाड़ का ही यह परिणाम हुआ कि यहां के राजा,जमीदार, और साहुकार उखड़ते गये।   
          सोने से न पेट भरता है न प्यास बुझती है।  किसी समय सोने की मुद्रायें प्रचलन में थी पर उससे आवश्यकता की वस्तुऐं खरीदी बेची जाती थी। बाद में अन्य धातुओं की राज मुद्रायें बनी पर उनके पीछे उतने ही
मूल्य  के सोने का भंडार रखने का सिद्धांत पालन में लाया जाता था। आधुनिक समय में पत्र मुद्रा प्रचलन में है पर उसके पास सिद्धातं यह बनाया गया कि राज्य जितनी मुद्रा बनाये उतने ही मूल्य का सोना अपने भंडार में
रखे।  गड़बड़झाला यही से शुरु हुआ। कुछ देशों ने अपनी पत्र मुद्रा जारी करने के पीछे कुछ प्रतिशत सोना रखना शुरु किया।  पश्चिमी देशों का पता नहीं पर विकासशील देशों के गरीब होने कारण यही है कि जितनी
मुद्रा प्रचलन में है उतना सोना नहीं है।  अनेक देशों की सरकारों पर आरोप है कि प्रचलित मुद्रा के पीछे सोने का प्रतिशत शून्य रखे हुए हैं। अगर हमारी मुद्रा के पीछे विकसित देशों की तरह ही अधिक प्रतिशत में सोना हो
तो शायद उसका मूल्य विश्व में बहुत अच्छा रहे।विशेषज्ञ बहुत समय से कहते रहे हैं कि भारतीयों के पास अन्य देशों से अधिकअनुपात में सोना है।  मतलब यह सोना हमारी प्राकृतिक तथा मानव
संपदा की वजह से है।  यह देश लुटा है फिर भी यहां इतना सोना कैसे रह जाता है? स्पष्टतः हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन आमजन अपने पसीने से करता है जिससे सोना ही   सोने में बदलता है। 
सोना लुटने की घटनायें तो कभी कभार होती होंगी पर आमजन के पसीने से सोना बनाने की पक्रिया कभी थमी नहीं होगी।
             भारत में आमजन जानते हैं कि सोना केवल आपातकालीन मुद्रा है।  कुछ
लोग कह रहे थे कि स्विस बैंकों से अगर काला धन वापस आ जाये तो देश विकासकरेगा मगर उतनी रकम तो हमारे यहां मौजूद है।  अगर ढूंढने निकलेंतो सोने के बहुत सारे खजाने सामने आयेंगे पर समस्या यह है कि हमारे यहां प्रबंध कौशल वाले लोग नहीं है।  अगर होते तो ऐसे एक नहीं हजारोंखजाने बन जाते। प्रचार माध्यम इस खजाने की चर्चा खूब कर रहे हैं पर आमजनउदासीन है। केवल इसलिये उसे पता है कि इस तरह के खजाने उसके काम नहीं आनेवाले। सुनते हैं कि त्रावणकोर के राजवंश ने अपनी प्रजा की विपत्ति में भीइसका उपयोग नहीं किया था।  इसका मतलब है कि उस समय भी वह अपनेसंघर्ष और परिश्रम से अपने को जिंदा रख सकी थी। बहरहाल यह विषय बौद्धिकविलासिता वाले लोगों के लिये बहुत रुचिकर है तो अध्यात्मिक साधकों के लिये
अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने का भी आया है।  जिनके सिर पर सोन का ताज था वही कटे जिनके पास खजाने हैं वही लुटे जो अपने पसीने से अपनी रोटी का सोना कमाता है वह हमेशा ही सुरक्षित रहा।  हमारे देश में पहले
अमीरी और खजाने भी दिख रहे हैं पर इससे बेपरवाह समाज अधिक है क्योंकि उसके
पास सोना के रूप में बस अपना पसीना है।  यह अलग बात है कि उसकी एक रोटी में से आधी छीनकर सोना बनाया जाता है।
हम प्रबंध योग सीख लें-हिन्दी व्यंग्य (hum prabandhyog seekh len-hindi
vyangya)
        

         देखा जाये तो अपना देश अब गरीबों का देश भले ही है पर गरीब नहीं है। सोने की चिड़िया पहले भी था अब भी है। यह अलग बात है कि अभी तक तो यह चिड़ियायें पैदा होकर विदेशों में घोंसला बना लेती और अपने यहां लोग हाथ मलते। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि यहां कभी दूध की नदियां बहती थी अब भी बहती हैं पर उनमें दूघ कितना असली है और कितना नकली यह अन्वेषण का विषय है।    
             हम दरअसल स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन और केरल के पद्मनाभ
मंदिर में मिले खजाने की बात कर रहे हैं। इस खबर ने हमारे दिलोदिमाग के सारे तार हिला दिये हैं कि पदम्नाभ मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ के हीरेजवाहरात, कीमती सिक्के और सोने के आभूषण मिले हैं। अभी कुछ अन्य कमरे खोले जाने हैं और यकीनन यह राशि बढ़ने वाली है। हम मान लेते हैं कि वहां चार लाख
करोड़ से कुछ कम ही होगी। यह आंकड़ा स्विस बैंक में जमा भारतीयों की रकम का भी बताया जाता है। वैसे इस पर विवाद है। कोई कहता है कि दो लाख करोड़ है तो कोई कहता तीन तो कोई कहता है कि चार लाख करोड़। हम मान लेते हैं कि स्विस बैंकों में जमा काला धन और मंदिर में मिला लगभग बराबर की राशि का होगा। न हो तो कम बढ़ भी हो सकता है।   
         हमें क्या? हम न स्विस बैंकों की प्रत्यक्ष जानकारी रखते हैं न ही पद्मनाभ मंदिर कभी गये हैं। सब अखबार और टीवी पता लगता है। जब लाख करोड़ की बात आती है तो लगता है कि दो अलग राशियां होंगी। तीन लाख करोड़ यानि तीन लाख और एक करोड़-यह राशियां मिलाकर पढ़ना कठिन लगता है। । अक्ल ज्यादा काम करती
 करना चाहते भी नहीं क्योंकि अगर आंकड़ों में उलझे तो दिमाग काम करना बंद कर देगा।        
         इधर खबरों पर खबरें इस तरह आ रही हैं कि पिछली खबर फलाप लगती है। सबसे
पहले टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की बात सामने आयी। एक लाख 79 हजार करोड़ का घोटाला बताया गया। फिर स्विस बैंक के धन पर टीवी और अखबार में चले सार्वजनिक विवाद में चार लाख करोड़ के जमा होने की बात आई। विवाद और आंदोलनके चलते साधु संतों की संपत्ति की बात भी सामने आयी। हालांकि उनकी
संपत्तियां हजार करोड़ में थी पर उनकी प्रसिद्धि के कारण राशियां महत्वपूर्णनहीं थी। फिर पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा की संपत्ति की चर्चा भी हुई तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गयी। चालीस हजारे करोड़ का अनुमान कियागया। यह रकम बहुत छोटी थी इसलिये स्विस बैंकों की दो से चार लाख करोड़ का
मसला लगातार चलता रहा। अब पद्मनाभ मंदिर के खजाने मिलने की खबर से उस पर
पानी फिर गया लगता है।       
          पिछले कुछ दिनों से अनेक महानुभाव यह कह रहे हैं कि विदेशों में जमा भारत
का धन वापस आ जाये तो देश का उद्धार हो जाये। अनेक लोग इस रकम का अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत महत्व बताते हुए अनेक तरह की विवेचना कर रहेहैं। अब पद्मनाभ मंदिर के नये खजाने की राशि के लिये भी यही कहा जा रहा है। ऐसे में हमारा कहना है कि जो महानुभाव विदेशों से काले धन को भारत लाने के लिये जूझ रहे हैं वह अपने प्रयास अब ऐसे उपलब्ध धन के सही उपयोग करने के लिये लगा दें। वैसे भी हमारे देश के सवौच्च न्यायालय ने विदेशों से काला धन लाने के लिये अपने संविधानिक प्रयास तेज कर दिये हैं इसलिये निज
प्रयास अब महत्वहीन हो गये हैं। वैसे केरल के पद्मनाभ मंदिर का खजाना भी न्यायालीयन प्रयासों के कारण सामने आया है। यकीनन आगे यह देश के खजाने में जायेगा। उसके बाद न्यायालयीन प्रयासों की सीमा है। धन किस तरह कहां और कब खर्च हो यह तय करना अंततः देश के प्रबंधकों का है। ऐसे में उनकी कुशलता
ही उसका सही उपयोग में सहयोग कर सकती है।          
          यहीं आकर ऐसी समस्या शुरु होती है जिसे अर्थशास्त्र में भारत में कुशल प्रबंध का अभाव कहा जाता है। अगर आप देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो भूतकाल और वर्तमान काल में धन की बहुतायात के प्रमाण हैं। प्रकृति की कृपा से यहां दुनियां के अन्य स्थानों से जलस्तर बेहतर है इसलिये खेती तथा पशुपालन अधिक होता है। असली सोना तो वह है जो श्रमिक पैदा करता है यह अलग बात है कि उसके शोषक उसे धातु के सोने के बदलकर अपने पास रख लेते हैं। जब तक हिमालाय है तब तब गंगा और यमुना बहेगी और विंध्याचल है तो नर्मदा की कृपा भी रहेगी। मतलब भविष्य में भी यहां सोना उगना है पर हमारे देश के लोगों का प्रेम तो उस धातु के सोने से है जो यहां पैदा ही नहीं होता। मुख्यसमस्या यह है कि हमारे देश में सामाजिक सामंजस्य कभी नहीं रहा दावे चाहे हम जितने भी करते रहें। जिसे कहीं धन, पद और बल मिला वह राज्य करना चाहता है। इससे भी वह संतुष्ट नहीं होता। मेरा राज्य है इसके प्रमाण के लिये शोषण और हिंसा करता है। राज्य का पद उपभोग के लिये माना जाता हैं जनहित करने के लिये नहीं। जनहित का काम तो भगवान के भरोसे है। किसी को एक रोटी की जगह दो देने की बजाय जिसके पास एक उसकी आधी भी छीनने का प्रयास किया जाता है यह सोचकर कि पेट भरना तो भगवान का काम है हमें तो अपना संसार निभाना है इसलिये किसी की रोटी छीने।            
           भारतीय अध्यात्म में त्याग और दान की अत्यंत महिमा इसलिये ही बतायी गयी है
कि धनिक, राजपदवान, तथा बाहबली आपने से कमजोर की रक्षा करें। भारतीय मनीषियों से पूर्वकाल में यह देखा होगा कि प्रकृति की कृपा के चलते यह देश संपन्न है पर यहां के लोग इसका महत्व न समझकर अपने अहंकार में डूबे हैं इसलिये उन्होंने समाज क सहज भाव से संचालन के सूत्र दिये। हुआ यह कि उनके
इन्हीं सूत्रों को रटकर सुनाने वाले इसका व्यापार करते हैं। कहीं धर्म भाव तो कहीं कर्मकांड के नाम पर आम लोगों को भावनात्मक रूप से भ्रमित कर उसके पसीने से पैदा असली सोने को दलाल धातु के सोने में बदलकर अपनी तिजोरी भरने लगते हैं। वह अपने घर भरने में कुशल हैं पर प्रबंधन के नाम पर पैदल हैं।
अलबत्ता समाज चलाने का प्रबंधन हथिया जरूर लेते हैं। जाति, भाषा, धर्म, व्यापार, समाज सेवा और जनस्वास्थ्य के लिये बने अनेक संगठन और समूह है पर प्रबंधन के नाम पर बस सभी लूटना जानते हैं। जिम्मेदारी की बात सभी करते हैंपर जिम्मेदार कहीं नहीं मिलता ।
    हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि देश गरीब इसलिये नहीं है यहां धन नहीं है बल्कि उसका उपयेाग करना जिम्मेदार लोगों का उसका वितरण करना नहीं आता।भ्रष्टाचार आदत नहीं शौक है। मजबूरी नहीं जिम्मेदारी है। जिसके पास राजपद है अगर वह उपरी कमाई न करे तो उसका सम्मान कहीं नहीं रहता।
        स्विस बैंक हो या पद्मनाभ का मंदिर हमारे देश के खजाने की रकम बहुत बड़ी है। कुछ लोग तो कहते हैं कि ऐसे खजाने देश में अनेक जगह मिल सकते हैं। उनकी रकम इतनी होगी कि पूरे विश्व को पाल सकते हैं। यही कारण है कि विदेशों के अनेक राजा लुटेरे बनकर यहां आये। मुख्य सवाल यह है कि हमें पैसे का इस्तेमाल करना सीखना और सिखाना है। इसे हम प्रबंध योग भी कह सकते हैं।
पतंजलि योग में कहीं प्रबंध योग नहीं बताया जाता है पर अगर उसे कोई पढ़े और समझे तो वह अच्छा प्रबंध बन सकता है। मुख्य विषय संकल्प का है और वह यह कि पहले हम अपनी जिम्मेदारी निभाना सीखें। त्याग करना सीधें। संपत्ति संचय न करें। जब हम कोई आंदोलन और अभियान चलाते हैं तो स्पष्टतः यह बात हमारे
मन में रहती है कि कोई दूसरा हमारा उद्देश्य पूरा करे। जबकि होना यह चाहिए कि हम आत्मनियंत्रित होकर काम करें।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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3 जुलाई 2011

कौड़ियों के भाव रिश्ते-व्यंग्य कवितायें (kaudiyon ke bhav rishtey-hindi vyangya kavitaen)

दिलवाले वही हैं जो
कई जगह आंख लगाते हैं,
बिकता है इश्क यहां
सब्जी की तरह
जेब में पैसा हो तो माशुकाऐं
चेहरा खूबसूरत हो तो
आशिक मक्खियों की तरह
चले आते हैं।
दिल के सौदे अब जज़्बातों से नहीं होते,
दौलत का दम हो तो रिश्ते नहीं खोते,
मेकअप से जहां खूबसूरती रौशन है
कई पतंग उसमें जले जाते हैं।
रंग बदलती इस दुनियां में
अटके जो एक ही मोहब्बत में
ठहरे पानी की तरह गले जाते हैं।
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कौड़ियों के भाव
रिश्ते यहां बिक जाते हैं,
किसे है खौफ पकड़े जाने का
सरेराह लोग वफा बेचते दिख जाते हैं।
शर्महया की बात करना बेकार है
लोग प्यार बेचने की कीमत भी
बाज़ार में लिख आते हैं।
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