27 दिसंबर 2012

महाबहस की शौहरत-हिन्दी कविता (mahabahas ke shauharat-hindi kavita)

कुछ लोग हर विषय पर बोलेंगे,
फिर अपने प्रचार की तराजु में
अपनी इज्जत का वजन तोलेंगे।
कहें दीपक बापू
हर जगह छाये हैं वह चेहरे
बाज़ार के सौदागरों से लेकर दाम,
प्रचारकों के साथी होकर करते काम,
अपने लफ्जों की कीमत लेकर ही
हर बार अपना मुंह खोलेंगे,
नाम वाले हो या बदनाम
पर्दे पर विज्ञापनों के बीच 
महाबहस के लिये
सामान जुटायेंगे वही लोग
जो पहले मशहुर होकर
शौहरत के लिये इधर उधर डोलेंगे।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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17 दिसंबर 2012

दिल और दिमाग-हिन्दी शायरी (dil aur dimag-hindi shayari)

अब उदास होने को  हमारा मन नहीं करता,
तन्हा हो या भीड़ में अपना  सोच नहीं मरता।
असलियत आ गयी है सामने
पूरे जमाने की
ख्याली घोड़े पर सवार लोग
करते हैं दौड़ जीतने के दावे
सौदे के सम्मान से हर कोई झोली भरता।
कहें दीपक बापू
अपनी कलम चलती जब कागज पर,
या नाचती हैं  टंकित कर,
होठों पर हंसी खुद-ब-खुद आ जाती है
लोगों ने भर ली झोली सामानों से
हम शब्दों के भंडार से खुश हैं
मुश्किल है आज के दौर में
अपने दिल और दिमाग को जिंदा रखना
यह हर कोई जुटा है खुशियां ढूंढने में
जिंदा रहने के लिये हर पल आदमी मरता।


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
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poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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11 दिसंबर 2012

बिचारे शब्द-हिंदी कविता (bichare shaba-hindi kavita or poem)

उन घरों में पर क्या जायें
जहां मखमल के कालीन भी
कांटों की तरह चुभते हैं,
मालिक हैं भले ही जहान के वह लोग
मगर आम इंसान के लिये
उनकी जुबान पर बिचारे ष्षब्द उगते है।
कहें दीपक बापू
बेआसरों के नाम पर
कर रहे जो सरेआम सौदे
उनके दरों पर आसरा ढूंढना बेकार हैं
पत्थरों के दिल उनके
क्या बांटेंगे वह हमारे साथ अपनी रोटी
हर जगह खुद सोने और चांदी के दाने चुगते हैं।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
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13 नवंबर 2012

आओ, ज्ञान दीप जलाएं-दीपावली पर विशेष हिंदी लेख,aao, gyan deep jalayen-deepawali par vishesh hindi lekh)

    आज सारे देश में दीपावली का पर्व मनाया जा रहा है।  वैसे कहने को तो  यह पर्व मूल रूप से भगवान श्रीराम की लंकाविजय के बाद अयोध्या वापसी पर हुए उत्सव के क्रम में मनाया जाता है पर इस पर सर्वाधिक पूजा श्री लक्ष्मी जी अधिक  की होती है।  आजकल भौतिकतावादी समाज के लिये भगवान राम के नाम का स्मरण करने की बजाय लक्ष्मी पर ध्यान रखना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।  भगवान श्रीराम के चरित्र के अनेक पक्ष हैं जिनमें सबसे अधिक उनका त्यागी भाव है।  अपने पिता के आदेश पर एक ही पल में अयोध्या के राज का उन्होंने त्याग कर जो अपनी लीला की उससे एक ही संदेश मिलता है कि अगर समाज की रक्षा और कल्याण करना हो तो उसके लिये राज्य की नहीं बल्कि राजसी इच्छाशक्ति की आवश्कता होती है।  इसके लिये यह आवश्यक है कि अध्यात्म का ज्ञान और बौद्धिक पराक्रम  मनुष्य के पास हो और यह बिना नियमित अभ्यास के नहीं आता।  अगर आदमी अध्यात्मिक ज्ञान का अभ्यास करे तो उसके सांसरिक कार्य भी योगानुष्ठान  बन जाते हैं।  जो मनुष्य सात्विक भाव से घर और व्यापार में रत रहता है उसे किसी अन्य प्रकार से यज्ञ की आवश्कता नहीं है।
     आज जब समाज में धर्म के नाम पर पाखंड बढ़ गया है तब अध्यात्मिक ज्ञान का रट्टा लगाने वालों की बन आयी है।  लोग व्यवसायिक धार्मिक कार्यक्रमों में जाकर अपने आपको ही भक्त होने का यकीन दिलाते हैं।  जैसे वक्ता वैसे ही श्रोता। ज्ञान बघारने वाले स्वयं ही उसे धारण किये दृष्टिगोचर नहीं होते।  ज्ञान को धारण करने की क्रिया को ध्राण शक्ति कहा जाता है और यह उन्हीं के पास हो सकती है जिनकी प्राणशक्ति तीक्ष्ण हो। यह प्राणशक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब कोई प्रातःकाल उठकर योगभ्यास और ध्यान करने के साथ ही मंत्रों का जाप करे।  देखा जा रहा है कि लोग केवल अर्थोपार्जन करना ही शक्ति का स्त्रोत मानते हैं। यही कारण है कि समाज का कथित सभ्रांत वर्ग अब क्षीण प्राणशक्ति के साथ जीवन व्यतीत कर रहा है।  यह अलग बात है कि लोग ज्ञान के लिये यज्ञ, हवन तथा अन्य कार्यक्रम आयोजित कर अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैर्मखःसदा।
ज्ञानमूलां क्रियामेषा पश्चन्तो ज्ञानचक्षुषा।।
       हिन्दी में भावार्थ-कुछ गृहस्थ विद्वान अपनी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हैं। अपने कार्य को ज्ञान से संपन्न करना  भी एक तरह से यज्ञानुष्ठान है।  वह ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते हैं इसलिये उन्हें श्रेष्ठ माना जाता है।
ब्राह्मो मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थो चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशांश्च तन्मूलान्वेदातत्तवार्थमेव च।।
      हिन्दी में भावार्थ-ब्रह्म मुहूर्त में उठकर धर्म का अनुष्ठान करने के बाद अर्थोपार्जन का विचार करना चाहिए।  इस शुभ मुहूर्त में शारीरिक क्लेशों को दूर करने के साथ ही वेदों के ज्ञान पर विचार करना भी उत्तम रहता है।
     इस दिवाली पर  प्रचार माध्यमों  दो बड़े ठगी के समाचार जोरो से चल रहे हैं।  ठगों ने अरबों रुपये की ठगी की और लाखों लोगों को चूना लगाया।  ठग पकड़े गये जिनकी सभी चर्चा कर रहे है  मगर शिकार हुए लोगों की बुद्धि पर कोई विचार नहीं दे रहा।  प्रश्न यह है कि कोई आदमी आपको एक साल में चार गुना धन देने या फिर बीस प्रतिशत व्याज देने का वादा कर रहा है क्या उसकी पृष्ठभूमि के बारे  में लोग पता करते हैं? नहीं न!  एक ने दो, दो ने चार और चार ने आठ को सुनाया। इस तरह संख्या सैंकड़ों और फिर लाखों तक पहुंच गयी।  यह भेड़चाल कही जाती है।  बीस लाख ठगे गये इसमें ठगों की चालाकी कम लोगों की ध्राणशक्ति की क्षीणता का अधिक प्रमाणित होती है।  पैसा बुद्धि हर लेता है पर इतनी कि मेहनत से कमाया गया पैसा कोई आदमी दूसरे पर यकीन कर इस तरह देता है तो यह सवाल भी उठेगा ही क्या हमारे समाज की बौद्धिक शक्ति इतनी क्षीण हो गयी है। आधुनिक शिक्षा पर भी प्रश्न  उठता है क्योंकि ठग कम और शिकार लोग अधिक शिक्षित हैं।  इन दोनों ठगों की पोल दिपावली पर इसलिये खुली क्योंकि जिन्होंने धन लगाया था उन्हें बाज़ार से सामान खरीदने के लिये अब चाहिये था।  नहीं मिला तो वह इधर उधर भागे और टीवी चैनलों के लिये  एक सनसनीखेज खबर बन गयी।
     बहरहाल दीपावली का पर्व मनाने वाले अपने अपने तरीके से मनाते हैं।  इस समय ज्ञान और ज्ञानसाधक अध्यात्मिक दृष्टि से अपने समय का उचित प्रयोग करना चाहते हैं तो जिनके पास धन है खर्च करने के लिये बाज़ार की तरफ देखते हैं।  आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि देश में पिछले कुछ वर्षों से करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है।  वह विकास दर पर यह कहते हुए खुश होते हैं कि देश में अमीर बढ़ रहे हैं।  समाजशास्त्री यह बताते हुए चिंतित होते हैं कि देश मे अपराध बढ़े हैं।  अध्यात्मवादी जानते हैं कि इस भौतिकवादी युग में लोगों की ध्राणशक्ति कमजोर पड़ी है इसलिये शिकार और शिकारी लोगों की संख्या भी बढ़ी है और इसे रोकने के लिये तत्वज्ञान के अध्ययन के लिये प्रेरणामयी अभियान चलाने केे अलावा  अन्य कोई मार्ग नहीं है। 
चलिये अपने अपने तरीके से दीपावली का पर्व मनायें।  इस पावन पर इस ब्लॉग के पाठकों और लेखक मित्रों को बधाई।  उनके लिये मंगलकामनायें।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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21 अक्तूबर 2012

दरियादिलों का इतिहास-हिंदी कविता (dariyadilon ka itihas-hindi kavita or poem

कमरे के अंदर वह खाना खाते हुए
आपस में बतियाइंगे,
कभी चिल्लायेंगे
कभी खिलखिलायेंगे,
बाहर भीड़ के सामने
करेंगे जहान का भला करने के फैसले का दावा
किया होगा जो उनके कारिंदों ने बैठकर
उसे अपनी मुलाकात का नतीजा दिखायेंगे।
कहें दीपक बापू
ऐसे दृश्य देखते हुए बीत गये बरसों
ऊंचाई पर बैठे लोग
अपनी अदाओं से रिझाते हैं
आम इंसानों के घावों से निकलता खून देखकर
,अपना खाली समय मनोरंजन में बिताते हैं,
फिर भी इतिहास के पन्नों में
दरियादिल की तरह लिखायेंगे।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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25 सितंबर 2012

उपभोग से नहीं त्याग से मिलता है हृदय में आनंद-हिन्दी लेख चिंत्तन (upbhog se nahin tyag se milta hai hridya mein anand-hindi lekh chittan)

                           हम जीवन में अधिक से अधिक आनंद प्राप्त करना चाहते है। हम चाहते हैं कि हमारा मन हमेशा ही आनंद के रस में सराबोर रहे।  हम जीवन में हर रस का पूरा स्वाद चखना चाहते हैं पर हमेशा यह मलाल रहता है कि वह नहीं मिल पा रहा है।  इसका मुख्य कारण यह है कि हम यह जानते नहीं है कि आनंद क्या है? हम आनंद को बाह्य रूप से प्रकट देखना चाहते हैं जबकि वह इंद्रियों से अनुभव की जाने वाली किया है।  आनंद हाथ में पकड़े जाने वाली चीज नहीं है पर किसी चीज को हाथ में पकड़ने से आनंद की अनुभूति की जा सकती है।  आनंद बाहर दिखने वाला कोई दृश्यरूप नहीं है पर किसी दृश्य को देखकर अनुभव किया जा सकता है।  यह अनुभूति अपने मन में लिप्तता का   भाव त्यागकर की जा सकती है।  जब हम किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति में मन का भाव लिप्त करते हैं तो वह पीड़ादायक होता है।  इसलिये निर्लिप्त भाव रखना चाहिए।
               कहने का अभिप्राय यह है कि आंनद अनुभव की जाने वाली क्रिया है। जब तक हम यह नहीं समझेंगे तब तक जीवन भर इस संसार के विषयों के  पीछे भागते रहेंगे पर हृदय आनंद  कभी नहीं मिलेगा।  संसार के पदार्थ भोगने के लिये हैं पर उनमें हृदय लगाना अंततः आंनदरहित तो कभी भारी कष्टकारक  होता है। हमें ठंडा पानी पीने के लिये,फ्रिज, हवा के लिये कूलर या वातानुकूलन यंत्र, कहीं अन्यत्र जाने के लिये वाहन और मनोरंजन के लिये दूसरे मनुष्य के द्वंद्व दृश्यों की आवश्यकता पड़ती है। यह उपभोग है।  उपभोग कभी आनंद नहीं दे सकता।  क्षणिक सुविधा आनंद की पर्याय नहीं बन सकती।  उल्टे भौतिक सुख साधनों के खराब या नष्ट होने पर तकलीफ पहुंचती है।  इतना ही नहीं जब तक वह ठीक हैं तब तक उनके खराब होने का भय भी होता है।  जहां भय है वहां आनंद कहां मिल सकता है।
जहां जहां दिल लगाया
वहां से ही तकलीफों का पैगाम आया,
जिनसे मिलने पर रोज खुश हुए
उन दोस्तों के बिछड़ने का दर्द भी आया।
कहें दीपक बापू
अपने दिल को हम
रंगते हैं अब अपने ही रंग से
इस रंग बदलती दुनियां में
जिस रंग को चाहा
अगले पल ही उसे बदलता पाया।
जब से नज़रे जमाई हैं
अपनी ही अदाओं पर
कोई दूसरा हमारे दिल को बहला नहीं पाया।
            हमें कोई  बाहरी वस्तु आनंद नहीं दे सकती।  परमात्मा ने हमें यह देह इस संसार में चमत्कार देखने के लिये नहीं वरन् पैदा करने के लिये दी है। कहा जाता है ‘‘अपनी घोल तो नशा होय’।  हमें अपने हाथों से काम करने पर ही आनंद मिल सकता है। वह भी तब जब परमार्थ करने के लिये तत्पर हों। अपने हाथ से अपने मुंह में रोटी डालने में कोई आनंद नहीं मिलता है। जब हम अपने हाथ से दूसरे को खाना खिलायें और उसके चेहरे पर जो संतोष के भाव आयें तब जो अनुभूति हो वही  आनंद है! आदमी छोटा हो या बड़ा परेशानी आने पर कहता है कि यह संसार दुःखमय है।  यह इस संसार में प्रतिदिन स्वार्थ पूर्ति के लिये होने वाले युद्धों में परास्त योद्धाओं का कथन भर होता है। जब आदमी का मन संसार के पदार्थों से हटकर कहीं दूसरी जगह जाना चाहता है तब उसे एक खालीपन की अनुभूति होती है।  जिनके पास संसार के सारे पदार्थ नहीं है वह संघर्ष करते हुए फिर भी थोड़ा बहुत आनंद उठा लेते हैं पर जिनके पास सब है वह थके लगते हैं।  किसी वस्तु का न होना दुख लगता है पर होने पर सुख कहां मिलता है? एक वस्तु मिल गयी तो फिर दूसरी वस्तु को पाने का मन में  मोह पैदा होता है।
              एकांत में आनंद नहीं मिलता तो भीड़ का शोर भी बोर कर देता हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आंनद मिले कैसे?
               इसके लिये यह  हमें अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।  एकांत में ध्यान करते हुए अपने शरीर के अंगों  और मन पर दृष्टिपात करना चाहिए।  धीरे धीरे शून्य में जाकर मस्तिष्क को स्थिर करने पर पता चलता है कि हम वाकई आनंद में है।  इसी शून्य की स्थिति आंनद का चरम प्रदान करती है। आनंद भोग में नहीं त्याग में है। जब हम अपना मन और मस्तिष्क शून्य में ले जाते हैं तो सांसरिक विषयों में प्रति भाव का त्याग हो जाता हैं यही त्याग आनंद दे सकता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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13 सितंबर 2012

हिन्दी दिवस पर लेख-हिन्दी लेखन में चांटाकार और चाटुकारों का वर्चस्व,hindi diwas par lekh-hindi lekhan mein chantakar aur chutakar ka varchasva)

         14 सितम्बर को हिन्दी दिवस है पर  इसके लिये मनाने वालों को तैयारी करने के लिये विषय सामग्री चाहिये इसलिये उनकी इंटरनेट पर उनकी  सक्रियता 11 से 13 सितम्बर तक बढ़ जाती है। इस ब्लॉग ने पहले के वर्षों में अनेक रचनायें हिन्दी दिवस पर लिखी  इसलिये सर्च इंजिनों से उन पर पाठक आते हैे।  13 सितम्बर को करीब करीब सारे ब्लॉग जमकर पाठक जुटाते हैं।  इस बार चार  ब्लॉग राजलेख की हिन्दी पत्रिका,  दीपक बापू कहिन, हिन्दी पत्रिका तथा अभिव्यक्ति पत्रिका ने जमकर पाठक जुटायें हैं। यह चारों शाइनी स्टेटस के साहित्य वर्ग में अंग्रेजी ब्लॉगों को पछाड़कर क्रमशः एक, तीन, छह जैसे  ऊंचे पायदान पर पहुंच गये हैं।  इस लेखक के ब्लॉग अपने जन्मकाल के बाद 13 सितम्बर 2012 को सर्वोच्च स्तर पर हैं।  इन चारों ब्लॉग के अलावा अन्य 16 ब्लॉग भी अपने पुराने कीर्तिमानों से आगे निकले हैं पर यह चारों ब्लॉग उल्लेखनीय हैं।  तीन ब्लॉग तीन हजार तथा दो ब्लॉग दो हजार के पास जाते दिखते रहे हैं।  इस लेखक के बीस ब्लॉगों पर यह संख्या बीस हजार पार सकती है।
      हम जैसे लेखक के लिये यह स्थिति अब आत्ममुग्धता नहीं लाती।  बल्कि कभी नहीं लाती। आज जो लिखा कल उससे बेहतर लिखने का प्रयास होता है।  पिछले लिखा लेखक उसे दिखातें फिरे यह शुद्ध लेखक का स्वभाव नहीं होता। फिर अनुभव के साथ लिखने के लिये विषय, शैली तथा प्रस्तुति के आयाम बदलते हैं।  इतने सारे पाठकों को देखकर अपने मन में निराशा उत्पन्न होती है कि अपनी ही  रचनायें बेदम नजर आ रही है।  ऐसा लगता नहीं है कि हमारी रचनायें पाठकों को प्रभावित कर सकीं। जब लिखा तब पता नहीं था कि अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस के अवसर पर इतने सारे पाठक हमारे ब्लॉग पर आयेंगे।  एक शौकिया लेखक होने के नाते व्यवसायिक कौशल न तो जानते है न ही यह प्रयास रहता है कि कोई सम्मान आदि मिले।
     हमारा मानना है कि अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस के अवसर पर इससे ज्यादा बेहतर लिखा जा सकता था।  मुश्किल यह है कि जिन लोगों को अंतर्जाल से आर्थिक लाभ है उनके पास प्रबंधन नहीं है।  यह अकुशल प्रबंधन अर्थशास्त्र की दृष्टि से हमारे देश की बहुत बड़ी समस्या है और हिन्दी लेखन इससे अछूता नहीं है। हमारे देश में कमाने वाले बहुत लोग हैं पर व्यवसायिक प्रवत्तियों का उनमें अभाव है जो कि अकुशल प्रबंधन की समस्या  बने रहने का कारण है।  हिन्दी लेखन में  स्वतंत्रता पूर्वक लिखना एकाकी यात्रा का कारण बनता है हालांकि उच्च कोटि की रचनायें ऐसे ही वातावरण में उत्पन्न  होती हैं।  हिन्दी प्रकाशन संस्थायें, प्रतिष्ठान और समितियां सरकारी पैसे के अनुदान की अपेक्षा करती हैं पर जहां देने की बात आती है वहां चाटुकार लेखक उनके लिये प्रिय होते हैं।  जहां चाटुकारिता है वहां रचनायें व्यक्ति से प्रतिबद्ध हो जाती हैं उस समय लेखक के दृष्टिपथ से आम पाठक गायब हो जाता है।  कुल मिलाकर हिन्दी लेखन जगत चांटाकार और चाटुकार जमात का बंधुआ हो गया है।  चांटाकार से सीधा आशय यह है कि जिसके पास पैसे, पद और प्रतिष्ठा का शिखर है वह किसी को भी लेखक को अपना चाटुकार बनाकर उसे सम्मनित करता है और जो उपेक्षा करे उसे अपमान या उपेक्षा का चांटा मारता है।  समस्या दूसरी यह है कि शुद्ध हिन्दी लेखक अध्यात्मिक रूप से परिपक्व होता है और वह किसी भी शिखर पुरुष का चाटुकार बनने की बजाय उस देव को पूजता है जो सबका दाता है।
       अक्सर लोग इस लेखक से सवाल पूछते हैं कि ‘तुम क्यों लिखते हो? इसका तुम्हें पैसा नहीं मिलता तो क्यों हाथ घिसते हो?
        इसके उत्तर में हम श्रीमद्भागवत गीता का  यह संदेश बताते हैं कि हमारा स्वभाव इसमें हमें लगाये रहता है। हम यह भी कहते हैं कि ‘‘शराब पीने से क्या मिलता है? सिगरेट का धुंआ उड़ाने से क्या मिलता है।  हम व्यसन नहीं पालते इसलिये कुछ न कुछ तो करना ही है। लिखने से बढ़िया और कौनसा ऐसा फालतु काम है जिसमें न पैसा खर्च हो न देह बीमार हो।’’
           इस हिन्दी दिवस पर अनेक बातें मन में आयीं पर उनको लिखने का अवसर तथा समय नहीं मिला।  इसका अफसोस है।  कमबख्त एक बात हमारे दिमाग में आती जाती है कि आखिर हिन्दी का क्या महत्व है इसे कैसे समझायें।  अनेक टिप्पणीकारों ने ‘‘समाज को हिन्दी का महत्व समझना चाहिये’’ इस शीर्षक में लिखी गयी विषय सामग्री से अंसतुष्ट हैं।  वह कहते हैं कि आपने महत्व तो बताया ही नहीं।  एक हास्य कविता पर एक टिप्पणीकार तो लिख गया कि यह बोरियत भरी है।  इन सब पर हमारा आश्वासन है कि अवसर मिला तो अगले हिन्दी दिवस पर कुछ अच्छा लिख कर बतायेंगे।  इधर कंप्यूटर कर रखरखाव और इंटरनेट का खर्च अब असहनीय होता जा रहा है। ऐसे में यह संकट हमारे सामने हैं कि कैसे एक ब्लॉग लेखक के रूप में अपना असितत्व बचायें।  लोग कहते है कि लेपटॉप खरीद लो।  अब इतनी बड़ी रकम इस पुराने शौक पर खर्च कर नहीं सकते।  एक बात तय रही कि अगर हमने ब्लॉग लिखना बंद किया तो सब डीलिट कर देंगे। हम अपना पैसा और श्रम खर्च कर इंटरनेट कंपनियों के ग्राहकों को अपनी मुफ्त सामग्री दे रहे हैं। यह सब टीवी पर विज्ञापनों और कार्यक्रमों पर इतना खर्च कर सकती हैं पर उन हिन्दी लेखकों के लिये उनके पास कुछ नहीं है जो अंततः उनके ग्राहकों को पठनीय सामग्री प्रदान करते हैं।
   फिलहाल हमारी लेखन जारी रखने की योजना है।  अपने प्रायोजक स्वयं हैं।  आगे प्रयास करेंगे कि बेहतर रचनायें हों।  इस हिन्दी दिवस पर समस्त पाठकों को बधाई।  कम से कम उन्होंने आज यह साबित कर दी है कि उनके अंदर भी अपनी मातृभाषा के लिये उमंग हैं यह अलग बात है कि उनके दिल की बात कोई समझा नहीं।  हम जैसे लेखक के लिये एक दिन में बीस हजार से अधिक पाठक कम नहीं होते।  बड़ी बड़ी वेबसाईटें इस आंकड़े को तरसती होंगी। यह अलग बात है कि प्रायोजित वेबसाईटें किसी न किसी तरह से अपने लिये पाठक जुटा लेती हैं पर उनके लिये भी यह आंकड़ा कोई आसान नहीं रहता होगा।  हिन्दी के पाठकों ने हिन्दी दिवस के अवसर पर हमें उनके समकक्ष खड़ा कर दिया यह हमारी नहीं हिन्दी भाषा की ताकत है।  एक दृष्टा होने के नाते हमें यह खेल देखने में भी मजा आता है। यह संदेश भी नोट कर लें कि हिन्दी का महत्व इसलिये है क्योकि इसमें लिखने में मजा आता है। जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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हिंदी भाषा का महत्व,हिंदी पर निबंध,राष्ट्रभाषा का महत्व,१४ सितम्बर हिंदी दिवस,संपादकीय,समाज,भारत और हिंदी,hindi ka mahatva,samaj,society,hindi bhasha ka mahatva,rashtrabhasha ka mahatva,hindi diwas on 14 september,hindi par nibandh,hindi bhasha par nibandh,article on hindi divas
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2 सितंबर 2012

भीड़ में दर्द सुनाना-हिंदी कविता

भीड़ में जाकर
अपना दर्द कहना
अब  हमें नहीं सुहाता है,
अपने गमों से हारे
चीखते चिल्लाते लोग
कानों से सुनते नहीं
अपनी जुबां से
उनको अपना हाल  बयान करना ही  आता है।
कहें दीपक बापू
सर्वशक्तिमान का शुक्रिया
अपने दर्द और खुशी पर
कविता या गीत लिखने की कला दी है
दिल हर नजारे पर
यूं ही कुछ लफ्ज गुनागुनाता है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा
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26 अगस्त 2012

भलाई सौदा हो गया है-हिंदी कविता (bhalai sauda ho gaya hai-hindi kavita)

करें जो लोग भलाई का व्यापार,
नाम पायें तो जोड़े नामे का भंडार।
चंदा मांगते बच्चे बूढ़े ओर नारी वास्ते
हवा में उड़कर हो जाते देश से पार।
 नाम रख दिया अपना समाज सेवक
बांटे न एक दाना, बनते मेवा के हकदार
कहें दीपक बापू सेवा भी बनी है सौदा
दान लेकर  चलाते लोग अपना घरबार।
अपनी सेवा से खाकर मेवा लोग इतराते,
कुछ बावले अपने देवत्तव का करते प्रचार।
हमने सीखी यह बात कि पाखंडी बुनते जाल
दिल में है जिनके सेवा, न मांगे कभी प्रचार।
बड़े लोगों की पूंछ में लटककर
कब तक जिंदगी पार लगाओगे,
लड़खड़ा गिरेंगे जमीन पर जब वह
पहले तुम दब जाओगे।
कहें दीपक बापू
उनका इलाज कोई बड़ा कर देगा
तुम खाओगे ठोकरें
उनको मिलेगी मलाई
तुम सूखी रोटी के लिये तरस जाओगे,
उनके महल रहेंगे हमेशा सलामत
तुम अपने उजड़े आशियाने के लिये
तिनके तिनके जोड़ते रह जाओगे।
-------------------------------दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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16 अगस्त 2012

धोखे का सौदा-हिंदी कविता (dhokhe ka sauda -hindi poem or kavita)

दौलत के ढेर पर बैठे हैं जो लोग
शौहरत भी उनके पास है,
मतलबपरस्तों ने पा लिये बड़े ओहदे
दरियादिली दिखाने की उनसे बेकार आस है,
चर्चे आम है कातिलों के,
प्यार के सौदागर बादशाह बने दिलों के,
मजे के दीवाने जमाने की चाहत है
गंगा उल्टी तरफ बहती नजर आये।
कहें दीपक बापू
ख्वाबों को हकीकत में लाना आसान नहीं,
सपनों की सच में कोई शान नहीं,
कसूरवार किसे कहें
सभी बेकसूरी के दावे करते नजर आये।
धोखे का सौदा
दुकानदार और ग्राहक दोनों को ललचाये।
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लेखक एवं कवि- दीपक राज कुकरेजा,‘‘भारतदीप’’, ग्वालियर
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior



15 अगस्त 2012

१५ अगस्त स्वतंत्रता दिवस पर कविता -आजाद तो पंछी हैं (azad to panchhi hain-a hindi poem kavita on 15 ogust swatantrata diwas par or 15 agust independent day)

आजाद तो पंछी हैं
चाहे जहां उड़ जाते हैं,
इंसान का मन उड़ता है
पर लाचार देह में पंख कहां
जुड़ पाते हैं।
कहें दीपक बापू
औकात से ज्यादा
कामयाबी पाने की ख्वाहिश
मतलबपरस्ती के साथ जीने की आदत
सपना इज्जतदार कहलाने का
हर आदमी इंसान गुलाम अपने दिल का
जुबां से उगलते लफ्ज जहर की तरह
प्यारे बोल का अब गुड़ कहां पाते हैं। 
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लेखक एवं कवि- दीपक राज कुकरेजा,‘‘भारतदीप’’, ग्वालियर
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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10 अगस्त 2012

तत्वज्ञान के संदर्भ में महिला महामंडलेश्वर विवाद-हिन्दी लेख (tatvagyan sa sandarbh mein mahila mandleshwar wowen sant-hindi article)

      जब धर्म केवल कर्मकांडों तक सिमटता है तब वहां ज्ञान की बात करना निरर्थक है। मूलतः धर्म का आधार अध्यात्म है पर अध्यात्मिक दर्शन और धर्म के बीच कोई स्पष्ट रेखा हमारे यहां खींची नहीं गयी है इसी कारण कर्मकांडों के विद्वान आमजन की संवेदनसओं का दोहन करने में सफल हो जाते हैं।  प्रसंग है एक कथित महिला को महामंडलेश्वर बनाने का जिसका चहुं ओर विरोध हुआ तो उसे वहां से निलंबित कर दिया गया।  
     उस महिला के अनेक दृश्य टीवी चैनलों पर दिखाई दिये। जिसमें नृत्य और भजन थे।  तत्वज्ञान की बात करते हुए तो उसे देखा ही नहीं गया।  वह महिला धर्म के व्यापार में ढेर सारी माया अपने चरणों में स्थापित कर चुकी है। उसका श्रृंगार देखकर कोई भी इस बात को नहीं मानेगा कि उसके पास अध्यात्मिक ज्ञन का ‘अ’ भी होगा। आरोप लगाने वालों ने  ने इस पदवी में धन के लेनदेन का आरोप भी लगाया है। सच क्या है पता नहीं पर हम यहां बात कर रहे हैं महामंडलेश्वर की उस उपाधि की जिसकी जानकारी अनेक लोगों के  लिये नयी नहीं है पर उसको प्रदाने करने की कोई प्रक्रिया है यह बात पहली बार इतने प्रचार के  साथ सामने आयी ।  आदि गुरु शंकराचार्य ने धर्म प्रचार के लिये चार मठ बनाये जिनके सर्वेसर्वा अब शंकराचार्य कहलाते हैं।  इनका भारतीय समाज में स्थान कितना है यह अलग से विचार का विषय हो सकता है पर भारतीय अध्यात्म की जो धारा सदियों से बह रही है उसके प्रवाह में इनका योगदान अधिक नहीं है यह  वर्तमान लोगों की जानकारी देखकर लगता है।  हिन्दू धर्म तथा भारतीय अध्यात्म के इतिहास तथा तत्वज्ञान का अध्ययन करने वाले हर शख्स का आदि शंकराचार्य का पता है पर वर्तमान शंकराचार्यों के प्रति उनके मन में मामूली श्रद्धा है जो कि हमारे देश की धरती पर उपजते सहज मानवीय  स्वभाव के ही कारण है।  वह यह कि सभी संतों का सम्मान करना चाहिए। न भी करें तो उनकी निंदा करने से बचना चाहिए।
एक बात तय है कि बिना तत्वज्ञान के भारतीय जनमानस में सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता।  वैसे तो कई संत हैं जो नृत्य और भजन कर भक्तों को प्रसन्न करते हैं। ऐसे संत तत्वज्ञानियों से अधिक धनवान होते हैं। जिनकी ज्ञान में रुचि नहीं है वह भक्त भी सांसरिक विषयों से ऊबकर इन संतों के सानिध्य में भक्ति और मनोरंजन के मिश्रित सत्संग का आनंद उठाते हैं।  वह इनको दान, चंदे या गुरुदक्षिणा देकर भगवान को प्रसन्न हुआ मानते हैं। इस तरह बिताया गया समय  क्षणिक रूप से उनको लाभ द्रेता है पर जब अध्यात्मिक शांति की बात मन में आती है तो उनको अपना मन खाली दिखता है।
      बहरहाल अब समय बदल गया है पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन सत्य पर आधारित है इसलिये उसके संदर्भ आज भी प्रासांगिक हैं।  नृत्य और गीत के सहारे भक्तों को सत्संग प्रदान करने वाली जिस महिला को विवादास्पद ढंग से महामंडलेश्वर बनाया गया उस पर बवाल उठा तब उसका नाम प्रचार में आया। अगर यह विवाद प्रचार माध्यमों में नहीं आता तो शायद अनेक  लोग यह समझ ही नहीं पाते कि महामंडलेश्वर होता क्या है? संभव है पैसे का लेनदेन हुआ हो। हमारे यह धार्मिक संगठनों में भी अब माया ने इस कदर अपनी पैठ बना ली है कि वहा उच्च पदों पर बैठे लोगों से सात्विक प्रवृत्ति की हमेशा आशा नहीं की जा सकती।  जिसने उपािध ली और जिन्होंने दी उन पर क्या आक्षेप किया जा सकता है? जब समाज ने क्रिकेट खिलाड़ियों में भगवान और फिल्मों अभिनेताओं में देवता होने की अवधाराणा को मान लिया है तब पेशेवर धार्मिक संगठनों या उनके पदाधिकारियों से-जिनको बिना किसी विद्यालय में गये ज्ञानी और धर्म का प्रतीक होने का प्रमाणपत्र मिला हुआ है-यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि वह अपनी उपाधियां उन नर्तकों और गायकों को न दें जो मनोरंजन को भक्ति के रूप में बदलने की कला में माहिर हों।
   जहां तक तत्वज्ञान का प्रश्न है तो वेदों और शास्त्रों के जानकार होने का दावा करने वाले अनेक संत जब श्रीमद्भागवत गीता पर बोलते हैं तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि वह उस ज्ञान से स्वयं ही दूर हैं।  ऐसी घटनाओं से अधिक आश्चर्य इसलिये भी नहीं करना चाहिए क्योंकि भारतीय समाज में ऐसे तत्व हमेशा ही मौजूद रहेंगे जो धर्म के नाम कर्मकांड और भक्ति के नाम पर मनोरंजन का व्यवसाय करते हैं।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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28 जुलाई 2012

गम का दर्द और इलाज-हिन्दी शायरी (gam ka dard aur ilaj-hindi shayri)

बरसों तक दर्द पीते रहे हम,
कभी कम नहीं हुए गम,
इलाज के मिले हजार नुस्खे
मगर दवाओं का था असर कम,
कहें दीपक बापू
जब तक आसरा टिकाया दूसरों पर
हवा का थोड़ा झौंका भी
हिला देता था जिंदगी
अब तो उम्मीद लादी है
अपने ही कंधों पर
बोझ तले नहीं लड़खड़ाते इसलिये कदम
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

14 अप्रैल 2012

पर्दे के दृश्य-हिन्दी कविता

बड़ा हो या छोटा पर्दा
उन पर जो दृश्य दिख रहे हैं,
जमाने की नज़रों में आने पहले
कथाकार उनको कागज पर लिख रहे हैं।
कहें दीपक बापू
समाज सेवा हो या फिल्म
समाचार हो या कोई मैच
कुछ अभिनेता सड़क पर
कल्याण का झंडा हाथ में लेकर चल रहे हैं
कुछ मैदान परं अभिनय की
अदाओं में डंडा लेकर ढल रहे हैं,
तुम किसी की जीत पर ताली बजाओ,
या सनसनी पर सकपकाओ,
सच यह है कि
हर इलाके के अदाकार
अमीरों के हाथ बिक रहे हैं।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

23 मार्च 2012

मैच फिक्सिंग की खबरें भी फिक्स-हिन्दी व्यंग्य (crickt match fixing ki khabre bhi fix-hindi vyangya or satire)

            अब तो यह लगता है कि क्रिकेट मैचों की फिक्सिंग की खबरें भी फिक्स हो सकती हैं। वजह साफ है कि जिस तरह फिक्स करने वाले और कराने वालों की बदनामी नहीं बल्कि प्रचार माध्यमों में इतनी प्रसिद्धि होती है कि वह हर जगह अपनी नाक फंसाकर नाम और नामा कमाने लगते हैं।
               अभी हाल ही में एक भारतीय अभिनेत्री पर पहले पाकिस्तानी और अब फिर श्रीलंका के क्रिकेट खिलाड़ियों से    संबंध बनाकर उनसे मैच फिक्स कराने का आरोप लगा। इसके बाद लगा कि जैसे वह बदनाम होकर मुंह छिपा लेगी पर हुआ उल्टा ही। वह तो रोज टीवी चैनलों पर साक्षात्कार देती नजर आ रही है। पहले तो उसने किसी भी देश के क्रिकेट खिलाड़ी को पहचानने से इंकार कर अपने को पाक साफ बताया। जिस मैच को फिक्स करने का आरोप उस पर लगा था जब उसे ही उसे ही क्रिकेट के भाग्यविधताओं ने पवित्र ढंग से खेला गया घोषित किया गया तो फिर दूसरे मैच की बात सामने आई। वह अभिनेत्री समझ गयी कि इस तरह की फिक्सिंग के सबूत मिलना संभव नहीं है। इधर प्रचार माध्यमों को अपने विज्ञापन कार्यक्रमों के लिये समाचार सामग्री प्रसारित करने के लिये एक नया चेहरा मिल गया। उसकी हिम्मत बढ़ी और वह दनादन बयान दे रही है। एक श्रीलंकाई खिलाड़ी से उसने डेट पर जाने की बात स्वीकारी है। इस तरह वह प्रचार पा रही है। संभव है कुछ दिनों में उसे कोई बड़ी फिल्म मिल जाये। यह भी संभव है कि उसे कोई फिल्म दी जाने वाली हो और उसके सफलता के लिये पहले इस अभिनेत्री का नाम चमकाया जा रहा हो। संभव है कि बिग बॉस के छठे संस्करण की यह तैयारी हो।
             उस अभिनेत्री ने मात्र एक असफल फिल्म की है। उसके नाम का यह हाल है कि नियमित फिल्म देखने वालों को भी उसका नाम याद नहीं है। बहरहाल मैच फिक्स की खबरों को फिक्स मानने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि कम से कम हमारे देश में किसी को भी मैच फिक्स करने के आरोप में कोई सजा नहीं मिली। इसके विपरीत कईयों को इतनी प्रसिद्धि मिली कि वह उसे नकद में भुनाने लगे। कुछ समय पहले एक पाकिस्तानी फिल्म अभिनेत्री पर भी पाकिस्तानी क्रिकेटरों से संपर्क कर मैच फिक्सिंग से जुड़े होने के आरोप लगे। उसके तो जैसे भाग्य खुले। भारत में उसको भारी शौहरत मिली। वह बिग बॉस में आयी और अब उसका नाम फीका पड़ने लगा। अब यह तो भारत की अभिनेत्री है। हम यह मानते हैं कि क्रिकेट अब बाज़ार के सौदागरों का विषय है। इसमें सट्टा वगैरह भी लगता है। संभव है कि मैच फिक्स भी होता हो। बाज़ार से प्रायोजित प्रचार समूह गाहे बगाहे मैच फिक्सिंग के समाचार देता है। उन पर बहस होती है। विशेषज्ञ आते हैं। इससे विज्ञापनों के लिये अच्छा खासा समय मिल जाता है। क्रिकेट का खेल यथावत चलता है। रोज रोज मैच हो रहे हैं। बाज़ार के सौदागर और प्रचार प्रबंधक दोनों हाथों से पैसा कमा रहे हैं। प्रचार माध्यमों के लिये खेल की खबरें जहां दिल बहलाने वालों का ध्यान पकड़े रहती हैं वहीं उनका विज्ञापन प्रसारण बेहतर ढंग से पास हो जाता है। जिनको केवल सनसनी से मतलब है उनके लिये मैच फिक्सिंग की खबरें हैं। एक समय हम क्रिकेट के दीवाने थे, पर जब फिक्सिंग की बात सामने आयी तो विरक्त हो गये। इधर ब्लॉग पर लिखना शुरु किया तो फिर क्रिकेट में फिक्सिंग पर भी बहुत लिखा। हमें हैरानी होती थी कि इस तरह मैच फिक्सिंग की खबरें देकर प्रचार प्रबंधक अपने पैरों पर कुल्हारी क्यों मारते हैं? जिस तरह मैच फिक्सिंग के आरोपों से घिरे लोग प्रतिष्ठत होकर प्रचार माध्यमों में नाम और नामा कमाने के साथ ही अपनी नाक की प्रतिष्ठा भी बढ़ा रहे हैं उससे तो लगता है कि यह खबरें भी फिक्स ही रही होंगी  ताकि क्रिकेट से बोर हो चुके लोग को सनसनी के रंग में रंगा जाये।
            ऐसे में तो हमें लगता है कि क्रिकेट मैच में न तो कोई फिक्सर है न मैच फिक्स होते हैं। अब तो स्थिति यह है कि कोई क्रिकेट खिलाड़ी अगर हमारे सामने आकर यह दावा करे कि वह मैच फिक्स करता है तो हम उसे फटकार देंगे। कह देंगे-‘भाग यहां से तू झूट बोलता है। तुझे किसी टीवी सीरीयल में काम चाहिये या फिल्म में, इसलिये इस तरह की बकवास कर रहा है।’
            फिर इधर बिग बॉस का कार्यक्रम भी अपने यहां चलता है। पिछला फ्लाप हो गया था। लगता है कि अब नये की तैयारी है। ऐसा लगता है कि उसमें शामिल होने के लिये जहां कुछ लोग ऐसे आरोप अपने सिर लेना चाहते हैं। जिनको उसमें शामिल करना है उनके लिये प्रचार प्रबंधक पहले से ही भूमिका बनाते हैं जिसमें उस पर मैच फिक्सिंग करने का आरोप लगाना अधिक सरल होता है। इसमें न तो किसी कानून का डर है न जनता का। इसलिये हमें नहीं लगता कि जितनी फिक्सिंग की खबरें आती हैं वह मैच फिक्स भी होते हैं।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

2 मार्च 2012

अजब गजब ज़माना-हिन्दी शायरी (ajab gazab zamana-hindi shayari)

क्या अजब हो गया यह ज़माना,
वातानुकूलित कारों में देह सड़ा रहा है,
अपने रसोईघर से गैस के बादल
आसमान में चढ़ा रहा है,
हरियाली को जलाकर
अस्पताल में ढूँढता आरोग्य का खज़ाना।
कहें दीपक बापू
ज़िंदगी है चलने का नाम,
डुबो देता है आराम,
आदमी दौड़ रहा है इधर उधर
पाने के लिए फायदे,
मगर बदलती नहीं
प्रकृति अपने कायदे,
विषैले विषय बहुत सुविधाजनक हैं
पर ज़िंदगी में अमन नहीं दे सकते
दुनिया में ज़िंदा रहने के लिए
जरूरी है शरीर के हर अंग से लो जमकर काम
आदमी तो बस कहीं खड़े होकर
कहीं बैठकर
बेजान चीजों में आँखें गड़ा रहा है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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26 फ़रवरी 2012

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन रेल की तरह यार्ड में खड़ा है-हिन्दी लेख (bhrashtachar viodhi andolan, anti corrupiton movement a train rail stay in yard-hindi lekh or article)

          अन्ना हज़ारे का आंदोलन बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों की सोची समझी योजना का एक भाग है-यह संदेह हमेशा ही अनेक असंगठित स्वतंत्र लेखकों को रहा है। जिस तरह यह आंदोलन केवल अन्ना हजारे जी की गतिविधियों के इर्दगिर्द सिमट गया और कभी धीमे तो कभी तीव्र गति से प्रचार के पर्दे पर दिखता है उससे तो ऐसा लगता है कि जब देश में किसी अन्य चर्चित मुद्दे पर प्रचार माध्यम भुनाने में असफल हो रहे थे तब इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की रूपरेखा इस तरह बनाई कि परेशान हाल लोग कहीं आज के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, कला, टीवी तथा फिल्म के शिखर पुरुषों की गतिविधियों से विरक्त न हो जायेे इसलिये उनके सामने एक जननायक प्रस्तुत हो जो वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने वाले विज्ञापनों के बीच में रुचिकर सामग्री निर्माण में सहायक हो। हालांकि अब अन्ना हज़ारे साहब का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अब जनमानस में अपनी छबि खो चुका है पर देखने वाली बात यह है कि प्रचार माध्यम अब किस तरह इसे नई साज सज्जा के साथ दृश्य पटल पटल पर लाते हैं।
           जब अन्ना हजारे का आंदोलन चरम पर था तब भी हम जैसे स्वतंत्र आम लेखकों के लिये वह संदेह के दायरे में था। यह अलग बात है कि तब शब्दों को दबाकर भाव इस तरह हल्के ढंग से लिखे गये कि उनको समर्थन की आंधी का सामना न करना पड़े। इसके बावजूद कुछ अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि वालों लोगों ने उसे भारी ढंग से लिया और आक्रामक टिप्पणी दी। इससे एक बात तो समझ में आयी कि हिन्दी में गूढ़ विषय को हल्के ढंग से लिखने पर भी यह संतोष मन में नहीं पालना चाहिए कि बच निकले क्योंकि अभी भी कुछ लोग हिन्दी पढ़ने में महारत रखते हैं। अभी अन्ना साहब को कहीं सम्मान मिलने की बात सामने आयी। सम्मान देने वाले कौन है? तय बात है कि बाज़ार और प्रचार शिखर पुरुषों के बिना यह संभव नहीं है। इसे लेकर कुछ लोग अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रायोजित होने का प्रमाण मान रहे तो उनके समर्थकों का मानना है कि इससे- क्या फर्क पड़ता है कि उनके आंदोलन और अब सम्मान के लिये पैसा कहां से आया? मूल बात तो यह है कि हम उनके विचारों से सहमत हैं।
             हमारी बात यहीं से शुरु होती है। कार्ल मार्क्स सारे संसार को स्वर्ग बनाना चाहते थे तो गांधी जी सारे विश्व में अहिंसक मनुष्य देखना चाहते थे-यह दोनों अच्छे विचार है पर उनसे सहमत होने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि इन विचारों को वास्तविक धरातल क्रियाशील होते नहीं देखा गया। भ्रष्टाचार पर इंटरनेट पर हम जैसे लेखकों ने कड़ी हास्य कवितायें तो अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले ही लिख ली थीं पर उनसे कोई इसलिये सहमत नहीं हो सकता था क्योंकि संगठित बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये फोकटिया लेखक और समाजसेवक के प्रयास कोई मायने नहीं रखते। उनके लिये वही लेखक और समाजसेवक विषय वस्तु बन सकता है जिसे धनोपार्जन करना आता हो। सम्म्मान के रूप में भारी धनराशि देकर कोई किसी लेखक को धनी नहीं बनाता न समाज सेवक को सक्रिय कर सकता है। वैसे भी कहा जाता है कि जिस तरह हम लोग कूड़े के डिब्बे में कूड़ा डालते हैं वैसे ही सर्वशक्तिमान भी धनियों के यहां धन बरसाता है। स्वांत सुखाय लेखकों और समाजसेवकों को यह कहावत गांठ बांधकर रखना चाहिए ताकि कभी मानसिक तनाव न हो।
           उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहे हैं। विज्ञापनों के बीच में प्रसारण के लिये समाचार और चर्चा प्रसारित करने के लिये बहुत सारी सामग्री है। ऐसे में प्रचार समूहों को किसी ऐसे विषय की आवश्यकता नही है जो उनको कमाई करा सके। यही कारण है कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को वैसे ही यार्ड में सफाई आदि के लिये डालकर रखा गया है कि जब प्लेटफार्म पर कोइ गाड़ी नहीं होगी तब इसे रवाना किया जायेगा। यह गाड़ी प्लेटफार्म पर आयेगी इसकी यदाकदा घोषणा होती रहती है ताकि उसमें यात्रा करने वाले यात्री आशा बांधे रहें-यदा कदा अन्ना हजारे साहब के इस अस्पताल से उस अस्पताल जाने अथवा उनकी अपने चेलों से मुलाकात प्रसारित इसी अंदाज में किये जाते हैं। ऐसा जवाब हमने अपने उस मित्र को दिया था जो अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की स्थिति का आंकलन प्रस्तुत करने को कह रहा था।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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11 फ़रवरी 2012

बड़े बोल बड़ा जाल -हिन्दी कविता (bade bol bada jaal-hindi kavita or poem)

बड़े बोल
अपने ही जाल में फंसा देते हैं,
जो बोले वह रोए
बाकी जग को हंसा देते हैं।
कहें दीपक बापू
प्राण शक्ति अधिक नहीं है जिनमें
वही बड़े सपने दिखते हैं,
चमकदार ख्वाबों से
अपनी किस्मत लिखते हैं,
मगर ज़मीन पर बिखरे कांटो के सच
उनको गर्दिश में धंसा देते हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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5 फ़रवरी 2012

ईमानदारी का रंग, भ्रष्टाचार से संग-हिन्दी हास्य कविता (imandari ka rang,bhrashtachar ke sang-hindi hasya kavita or comic poem)

शिक्षक ने छात्रों से पूछा
"तुम में से बड़ा होकर कौन
भ्रष्टाचार से लड़ेगा,
समाज में ईमानदारी के रंग भरेगा,
यह काम मुश्किल है
क्योंकि बिना रिश्वत के तो
अपने घर में इज्ज़त भी नहीं रह जाती है,
तनख्वाह के भरोसे चले तो
तीन तारीख को ही
जेब खाली नज़र आती है,
खुद रहो सूखे तो कोई बात नहीं
पर भ्रष्टाचार से लड़ने निकले तो
अपनी जान भी मुसीबत फंस सकती है,
गैरों में ही नहीं अपनों की नज़र में भी
इज्ज़त धंस सकती है,
बताओ तुम में कौन
देश में बदलाव का बीड़ा उठाएगा।

एक छात्र मे कहा
"मैं करूंगा भ्रष्टाचार से ज़ंग,
भरूगा देश में ईमानदारी का रंग,
हाँ,
इससे पहले खूब कमा लूँगा,
सबकी सेवा हो जाए
इसके लिए रुपयों का इंतजाम करा दूँगा,
फिर कोई ताना नहीं मारेगा,
धन की कमी न होगी तो
कोई गैर ज़िम्मेदार होने का आरोप हम पर नहीं धरेगा,
घर के बड़े लोगों ने
बस कमाने के लिए कहा है,
शिक्षा खत्म होते ही
पहले यही काम करेंगे
उनको पहले सुने, यह उनका हक है
सभी ने यही कहा है,
बाद में आपकी बताई राह चलेंगे,
ईमानदारी क्या शय है समझेंगे,
फिर तो हर कोई
आपके नाम पर अपनी जान लुटाएगा।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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25 जनवरी 2012

गणतंत्र एक भ्रम-हिन्दी लेख (gantantra or republic or democracy a confusion-hindi article on republic day or 26 janwary or 26 january)

         गणतंत्र एक शब्द है जिसका आशय लिया जाये तो मनुष्यों के एक ऐसे समूह का दृश्य सामने आता है जो उनको नियमबद्ध होकर चलने के लिये प्रेरित करता है। न चलने पर वह उनको दंड देने का अधिकार भी वही रखता है। इसी गणतंत्र को लोकतंत्र भी कहा जाता है। आधुनिक लोकतंत्र में लोगों पर शासन उनके चुने हुए प्रतिनिधि ही करते हैं। पहले राजशाही प्रचलन में थी। उस समय राजा के व्यक्तिगत रूप से बेहतर होने या न होने का परिणाम और दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता था। विश्व इतिहास में ऐसे अनेक राजा महाराज हुए जिन्होंने बेहतर होने की वजह से देवत्व का दर्जा पाया तो अनेक ऐसे भी हुए जिनकी तुलना राक्षसों से की जाती है। कुछ सामान्य राजा भी हुए। आधुनिक लेाकतंत्र का जनक ब्रिटेन माना जाता है यह अलग बात है कि वहां प्रतीक रूप से राजशाही आज भी बरकरार है।
          मूल बात यह है कि हम गणतंत्र में मनुष्य समुदाय पर एक नियमबद्ध संस्था शासन के रूप में रखते हैं। विश्व के जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसे राज्य व्यवस्था की आवश्यकता है। इसकी वजह साफ है कि सबसे अधिक बुद्धिमान होने के कारण उसके ही अनियंत्रित होने की संभावना भी अधिक रहती है। माना जाता है कि राज्य ही मनुष्य का नियंता है जिसके बिना वह पशु की तरह व्यवहार कर सकता है। राज्य करना मनुष्य की प्रवृत्ति भी है। उसमें अहंकार का भाव विद्यमान रहता है। सभी मनुष्य एक दूसरे से श्रेष्ठ दिखना चाहते हैं और राज्य व्यवस्था के प्रमुख होने पर उनको यह सुखद अनुभूति स्वतः प्राप्त होती है। जिन लोगों को प्रमुख पद नहीं मिलता वह छोटे पद पर बैठकर बाकी छोटे लोगों को अपने दंड से शासित करते है। इस तरह यह क्रम नीचे तक चला आता है। वहां तक जहां से आम इंसान की पंक्ति प्रारंभ होती है। इस पंक्ति के ऊपर बैठा हर शख्स अपने श्रेष्ठ होने की अनुभूति से प्रसन्न है पर साथ ही अपने से ऊपर बैठे आदमी की श्रेष्ठता पाने का सपना भी उसमें रहता है। इस तरह यह चक्र चलता है। जो राज्य व्यवस्था से नहीं जुड़े वह भी कहीं न कहीं अपनी श्रेष्ठता दिखाने के व्यसन में लिप्त हैं।
          राज्य कर्म अंततः राजस भाव की उपज है। उसमें सात्विकता बस इतनी ही हो सकती है जितना आटे में नमक! इससे अधिक की अपेक्षा अज्ञान का प्रमाण है। राज्य कर्म में ईमानदारी एक शर्त है पर उसे न मानना भी एक कूटनीति है। प्रजा हित आवश्यक है पर अपनी सत्ता बने रहने की शर्त उसमें जोड़ना आवश्यक है। अकुशल राज्य प्रबंधकों के के लिये ईमानदारी और प्रजा हित अंततः गौण हो जाते हैं। राज्य कर्म में एक सीमा तक ही सत्य भाषण, धर्म के प्रति निष्ठा और दयाभाव दिखाया जा सकता है। छल, कपट, प्रपंच तथा क्रूर प्रदर्शन राज्य कर्म करने वालों की शक्ति का प्रमाण बनता है। वह ऐसा न करें तो उनको सम्मान नहीं मिल सकता। न्याय के सिद्धांत सुविधानुसार चाहे जब बदले जा सकते हैं।
         सभी राजस कर्म करने वाले असात्विक हैं यह मानना ठीक नहीं है पर इतना तय है कि उनमें एक बहुत वर्ग ऐसे लोगों का रहता है जो अपने लाभ के लिये इसमें लिप्त होते हैं जिसे राजस भाव माना जाता है। आज के समय में तो राजनीति एक व्यवसाय बन गया है। यह अलग बात है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे बुद्धिमान लोग उसमें सत्य, अहिंसा तथा दया के भाव ढूंढना चाहते है।
           विश्व में अधिकतर लोग चाहते हैं कि उन्हें राजसुख न मिल पाये तो उनकी संतान को प्राप्त हो। राजसुख क्या है? यह सभी जानते हैं। दूसरे पर हमारा नियम चले पर हम पर कोई नियम बंधन न हो! लोग हमारी माने पर हम किसी की न सुने। किसी में हमारी आलोचना की हिम्मत न हो। बस हमारी पूजा भगवान की तरह हो। इसी भाव ने राज्य व्यवस्था को महत्वपूर्ण बना दिया है।
           राज्य संकट पड़ने पर प्रजा की मदद करता है। गणतंत्र का मूल सिद्धांत है पर यह एक तरह का भ्रम भी है। प्रजा कोई इकाई नहीं बल्कि कई मनुष्य इकाईयेां का समूह है। मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल भोगता है। वह इंद्रियों से जैसे दृश्य चक्षुओं से, सुर कर्णों से, भोजन मुख से तथा सुगंध नासिका से ग्रहण करने के साथ ही अपने हाथ से जिन वस्तुओं का स्पर्श करता है वैसी ही अभिव्यक्ति उसकी इन्हीं इद्रियों से प्रकट होती है। विषैले विषयों से संपर्क करने वालों से अमृतमय व्यवहार की अपेक्षा केवल अपने दिल को दिलासा देने के लिये ही है। मनुष्य को अपना जीवन संघर्ष अकेले ही करना है। ऐसे में वह अपने साथ गणसमूह और उसके तंत्र के साथ होने का भ्रम पाल सकता है पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
       उससे बड़ा भ्रम तो यह है कि गणतंत्र हम चला रहे हैं। धन, पद और अर्थ के शिखर पुरुषों का समूह गणतंत्र को अपने अनुसार प्रभावितकरते हैं जबकि आम इंसान केवल शासित है। वह इस गणतंत्र का प्रयोक्ता है न कि स्वामी। स्वामित्व का भ्रम है जिसमें जिंदा रहना भी आवश्यक है। अगर आदमी को अकेले होने के सत्य का अहसास हो तो वह कभी इस भ्रामक गणतंत्र की संगत न करे। जिनको पता है वह सात्विक भाव से रहते हैं क्योंकि जानते हैं कि सहनशीलता, सरलता और कर्तव्यनिष्ठ से ही वह अपना जीवन संवार सकते हैं। जिनको नहीं है वह आक्रामक ढंग से अभिव्यक्त होते है। वह अनावश्यक रूप से बहसें करते है। वाद विवाद करते हैं। निरर्थक संवादों से गणतंत्र को स्वयं से संचालित होने का यह भ्रम हम अनेक लोगों में देख सकते है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

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